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तपः कुलकम्
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थरहरिश्रधरं झलहलिश्र
सायरं चलिय सयल कुल सेलं । जमकासी जयं विगहु, ___ संघकए तं तवस्स फलं ॥११॥
श्री संघ का कष्ट निवारण करने हेतु जब विष्णुकुमार ने लाख योजन पर्यन्त शरीर का विस्तार कर विजय को प्राप्त किया, तब पृथ्वी कम्पित हो गई थी, तथा पर्वत प्रकम्पित होकर डोल उठे यह सब तप का ही प्रभाव तो है ॥१६॥ किं बहुणा भणिएणं ?
जं कस्स वि कह वि कत्थ वि सुहाई। दीसंति भवणमज्झे,
तत्थ तवो कारणं चेव ॥२०॥ __तप के प्रभाव का कहां तक वर्णन करें, सार में यही कहता हूं कहीं भी तीनों जगत में जहां भी सुख समाधि मिलती है वहां बाह्य तथा आभ्यंतर तप ही कारण है अतः सुख के चाहने वाले को उसका आराधन करने के लिये यथा विध प्रयत्न करना चाहिये ॥२०॥
॥ इति श्री तपकुलकस्य सरलार्थः समाप्तः ॥
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