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भाव कुलकम्
मणिमंत श्रोसहीणं,
जंततंताण देवयाणं पि। भावेण विणा सिद्धि,
न हु दीसइ कस्स वि लोए ॥३॥ मणि, मन्त्र औषधि यन्त्र और तन्त्र एवं देवताओं की साधना किसी की भी बिना भावना के सफली भूत नहीं हुई है । भाव योग से ही सिद्धि संभव है ॥ ३ ॥ सुहभावणावसेणं,
पसन्नचंदो मुहुत्तमित्तेण । खविऊण कम्मगंठि,
संपत्तो केवलं नाणं ॥४॥ शुभ भावनाओं के संयोग से प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने एक ही मुहूर्तमात्र में कर्म ग्रन्थि की भेदना कर कैवल्य प्राप्त किया था। सुस्सूसंती पाए,
गुरुणीणं गरिहिऊण नियदोसे। उप्पन्न दिव्वनाणा,
मिगावई जयउ सुह भावा ॥५॥