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श्री गौतम कुलकम्
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कोहाभिभूया न सुहं लहंति,
माणंसिणो सोयपरा हवंति । माया विमो हुंति परस्स पेसा,
कुद्धा महिच्छा नरयं उविति ॥३॥ जो क्रोध से युक्त है उन्हें सुख नहीं, मानी शोकातुर अवस्था को प्राप्त करता है, मायावी पराया नौकर बनता है तथा लोभ की अधिक तृष्णावाला जीव नरक में उत्पन्न होता है ॥ ३॥ कोहो विसं किं श्रमयं अहिंसा,
माणो श्ररी किं हियमप्पमायो। माया भयं किं सरणं तु सच्चं,
लोहो दुहं किं सुहमाह तुठ्ठि ॥४॥ क्रोध महान् विष है, अहिंसा अमृत है, मान शत्रु है, अप्रमाद हितैषी मित्र है, माया भय है, सत्य शरण है, लोभ दुःख है तथा संतोष सुख कहा गया है ॥ ४ ॥ बुद्धि अचंडं भयए विणीयं,
कुद्धं कुसीलं भयए अकित्ती।