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प्रभव्य कुलकम्
[ ] ॥ अथ अभव्य कुलकम् ॥ जह अभविय जीवेहिं,
न फासिया एवमाइया भावा । इंदत्तमणुत्तरसुर, सिलायनर नारयत्तं च
॥१॥ अब अभव्यों के विषय में कहता हूं. जिन्हें भावों का स्पर्श भी नहीं हुआ है।
(१) इन्द्रत्व, (२) अनुत्तरवासी देवत्व, (३) सठ सलका पुरुषत्व तथा (४) नारदत्व ये कदापि अभव्यों को प्राप्त नहीं हो सकते ॥१॥ केवलिगणहर हत्थे,
पव्वजा तित्थवच्छरं दाणं । पवयणसुरी सुरत्तं, लोगंतिय देवसामित्तं
॥२॥ (५) पुनः अभव्य जीवों केवली तथा गणधरों के हाथ से दीक्षा (६) श्री तीर्थकर का वार्षिकदान (७) प्रवचन की