________________
८० ]
भावेण भुवणनाहं, वंदे ददुशेवि संचलियो । मरिऊण अंतराले, नयनामंको सुरो जा
भाव कुलकम्
।। १५ ।।
नंद मणीआर का जीव मेंढक हुआ, किन्तु भुवन गुरु श्री वर्धमान स्वामी को समवसरित जान कर भाव से वंदन करने चला, वहां रास्ते में ही घोड़े की खुर के नीचे पिस कर मर गया किन्तु शुभ भाव के कारण निज नामांकित 'ददु कि' नाम का देव हुआ ।। १५ ।।
विश्याविश्य सहोदर,
उद्गस्स भरेण भरि सरिश्राए ।
भणियाइ सावियाए, दिनो मग्गुत्ति भाववसा
113 €11
विरत साधु तथा अविरत (श्रावक राजा ) जो दोनों सगे भाई थे, उन्हें उद्देशित कर दीक्षा लेने के पश्चात् हमेशा मेरे देवर मुनि भोजन करते हुए भी उपवासी तथा मेरे पति भोग भोगते हुए भी ब्रह्मचारी हों तो हे नदी ! मुझे रास्ता देना । इस प्रकार उक्त के मुनि के दर्शन करने जाती