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शील महिमा गभितं शील कुलकम्
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नियपुत्तो वि कुसीलो,
न वल्लहो होइ लोग्राणं ॥१७॥ म्वयं का मित्र, बन्धु, पिता या पितामह या स्वयं का पुत्र भी यदि कुशीलवन्त हो तो किसे अप्रिय नहीं होगा, तथा लोगों को भी प्रिय नहीं होगा ॥ १७ ॥ सम्बेसि पि वयाणं,
__ मग्गाणं अत्थि कोइ पडियारो। पकघडस्स व कन्ना,
न होइ सीलं पुणो भग्गं ॥१८॥ अन्य किसी भी खण्डित व्रत को सांधने के लिये आलोचना, निन्दा रूप प्रायश्चित का विधान है किन्तु शीलव्रत के भंग होने पर उसे ठीक करने का कोई उपाय नहीं है ।। १८॥ वेपालमूत्ररक्खस
केसरिचित्तयगइंदसप्पाणं । लीलाइ दलइ दप्पं,
पालतो निम्मलं सीलं ॥११॥