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तपः कुलकन्
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मुनिराज जो एक वस्त्र से सहस्रों वस्त्र तथा एक घट से सहस्रों घट निर्मित करते हैं वह निश्चय ही तपस्या रूपी कल्पवृक्ष का ही फल है ॥६॥ अनित्राणस्स विहिए,
तवस्स तविपस्स किं पसंसामो। किजइ जेण विणासो
निकाईयाणं पि कम्माणं ॥ १०॥ जिससे निकाचित कर्मों का भी नाश हो जाता है उन नियाणा रहित विधिपूर्वक किये गये तप की हम कितनी प्रशंसा करें ? ॥१०॥ ईदुक्करतवकारी,
जगगुरुणा कराह पुच्छिएण तया। वाहरियो सो महप्पा,
समरिजउ ढंढणकुमारो ॥११॥ अठारह हजार मुनिओं में अति दुष्कर तप करने वाले साधु कौन है ? ऐसा कृष्ण के पूछे जाने पर जगद्गुरु श्री नेमि प्रभु ने जिनकी प्रशंसा की थी वे ढंढण मुनि हमेशा स्मरणीय है ॥११॥