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श्री संविग्न साधुयोग्यं नियम कुलकम्
[४१.
में कूप खोदने जैसा है, या जल हीन भूमि में जल के लिये प्रयत्न करने के समान व्यर्थ है ॥ ४३ ॥ संघयण काल बलदूसमा
रयालंबणाई चित्तणं। सव्वं चिय नियमधुरं,
निरुज्जमायो पमुच्चंति ॥४॥ ___ वर्तमान समय में संघयण काल, बल, दुःषम आदि निर्वल है इस प्रकार के पुरुषार्थहीन वाक्यों का अवलम्बन कर पुरुषार्थ हीन पुरुष संयम तथा नियमों की धुरि को छोड़ देते हैं । पुरुषार्थी नहीं ॥ १४ ॥ वुच्छिन्नो जिणकप्पो,
पडिमाकप्पो श्र संपइ नत्थि। सुद्धो अ थेरकप्पो,
संघयणाईण हागीए ॥४॥ तहवि जइ ए श्र नियमा
राहण विहिए जइज चरणम्मि । सम्ममुवउत्तचित्तो,
तो नियमा राहगो होइ