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गन महिमा गभित दान कुलकम्
दाणं सोहग्गकरं,
दाणं आरुग्ग कारण परमं । दाणं भोग निहाणं,
दाणं ठाणं गुणगणाणं ॥३॥ __दान सौभाग्य को देने वाला है, दान परम आरोग्य का कारण है, दान पुण्य का निधान अर्थात् भोग फल देने वाला है, तथा दान अनेक गुण समूहों का स्थान है ॥३॥ दाणण फुरइ कित्ती,
दाणेण य होइ निम्मला कंती। दाणावजिय हिश्रो, . .
वेरी विहु पाणियं वहइ ॥४॥ दान के कारण निर्मल कीर्ति बढती है । दान से निर्मल कान्ति बढती है, तथा दान के कारण दुश्मन भी अधीन होकर दातार के गृह पाणी भरता है ॥ ४ ॥ धणसस्थवाह जम्मे,
जं घयदाणं कयं सुसाहणं । तक्कारणमुसभजिणो,
तलुपियामहो जामो ॥५॥