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अथ संविग्न साधुयोग्यं नियम कुलकम
वंदन करूँ, तथा शेष दिनों में एक मन्दिर में दर्शन चैत्यवंदन तो अवश्य ही करूं ।। ।। पइदिणं तिनिवारा,
जिढे साहू नमामि निश्रमेणं । वेयावच्चं किंची,
गिलाण वुड्डाइणं कुवे ॥१०॥ नित्य वडील साधुओं को अवश्य ही त्रिकाल वंदन करूँ तथा अन्य रुग्ण और वृद्धादि अशक्त मुनिजनों की वेयावञ्च यथाशक्ति करूँ॥१०॥ ___(साध्वी स्वयं के समुदाय में बड़ी साध्वियों का वंदन नित्य करें।)
अब चारित्राचार के विषय में निम्नलिखित नियमों का वर्णन करते हैं। श्रह चारित्तायारे, नियमग्गहणं करेमि भावेणं । बहिभूगमणाईसु, वज्जे वत्ताई इरियत्थं ॥११॥
१ इर्यासमिति—बडीनीति--लघुनीति करना या आहार-पाणी वेरणा करते समय जाते आते जीव-रक्षा के लिये मार्ग में वार्तालाप का त्याग करूँ॥ ११ ॥