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अथ संविग्न साधुयोग्यं नियम कुलकम् [३७ चउवीसं वीसं वा,
लोगस्म करेमि काउसग्गम्मि। कम्मखयट्ठा पइदिण,
सज्झायं वा वितम्मित्तं ॥३॥ नित्य कर्मक्षय हेतु चौबीस या वीस लोगस्स का काउस्सग्ग करूँ, या काउस्सग्ग में रहने वाली स्थिरता से सज्झाय ध्यान करूँ ॥ ३४ ॥ निदाइपमारणं,
मंडलिभंगे करेमि अंबिलयं । नियमा करेमि एगं,
विस्सामयणं च साहूणं ॥३५॥ - निद्रादिक के प्रभाद से मंडली का भंग हो जावे तो, या प्रतिक्रमणादि क्रिया में पृथक् पड़ जाऊँ तो एक आयंबिल करूं, और साधुओं की एक बार विश्वामणा-वैयावच्च निश्चय ही करूँ ॥३५॥ सेह गिलाणाइणं,
विणा वि संघाडयाइ संबंधं । पडिलेहणमल्लगपरि,
ठवणाइ कुब्वे जहा सत्ति ॥३६॥