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अथ संविग्न साधुयोग्य नियम कुलकम्
नित्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से अभिग्रह धारण करने चाहिये, कारण इसके पालन बिना प्रायश्चित लगता है। ऐसा श्री यतिजित कल्प में कहा गया है ॥ ३१ ॥
. वोर्याचारवीरियायारनियमे,
गिराहे केइ अवि जहासति । दिण पण गाहाइणं,
प्रथं गिराहे म(णे)णुण सया ॥३२॥ वीर्याचार सम्बन्धी कितने ही नियमों का मैं यथाशक्ति पालन करता हूं, किनहीं ? नित्य संपूर्ण पांच गाथाओं का अर्थ ग्रहण करके स्टन-स्वाध्याय करूँ ॥ ३२ ॥ पणवारं दिणमझे,
पमाययंताण देमि हियर्यासवखं । एगं परिढुवेमि श्र,
भत्तयं सव्यसाहूणं ॥३३॥ घडीलता के नाते दिन में संयम मार्ग में प्रमाद करने वाले को मैं पांच बार हित शिक्षा हूँ तथा लघुता के नाते मैं सब वडील साधुओं का एक एक मात्रक परठवु ॥३३॥