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गुरु प्रदक्षिणा कुनकम्
जो देसो तं नगरं,
सो गामो सो अथासमो धन्नो। जत्थ पहु ! तुम्ह पाया,
विहरंति सयावि सुपसन्ना ॥३॥ वह देश, नगर, ग्राम तथा आश्रम धन्य है कि जहां हे प्रभो ! आप सदाय सुप्रसन्न होकर विचरण करते हो अर्थात् विहार कर उस स्थान को धन्य करते हो ॥३॥ हत्था ते सुकयत्था,
जेकिइकम्म कुणन्ति तुह चलणे। वाणी बहुगुणखाणी,
सुगुरुगुणा वरिणश्रा जीए ॥ ४ ॥ मेरे वे हाथ कृतार्थ हुए जो आपके चरणों में द्वादशावर्त वंदन करते हैं, मेरी वाणी इसलिये सफल हुई कि आपका ही गुणानुवाद गाती है। अतः मैं मन, वचन दोनों से सफल हुआ ॥ ४ ॥ अवयरिया सुरघेणू,
संजाया मह गिहे कणयबुट्टी।