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अथ संविग्न साधुयोग्यं नियम कुलकम्
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अथ संविग्न साधुयोग्यं नियम कुलकम् भुवणिक्क पईवसमें,
वीरं नियगुरुपए श्र नमिऊणं विरइ अरदिक्खियाणं, .
जुग्गे नियमे पवक्खामि ॥१॥
Pतीनों भुवनों के लिये असाधारण प्रदीप के समान उज्ज्वल श्री वीर प्रभु को और मेरे गुरु के चरण कमलों में नमस्कार करके दीर्घ पर्याय वाले तथा - नवदीक्षित साधुओं के निर्वाह योग्य नियम मैं (सोमसुन्दरसरि ) वर्णित कर रहा
निउभरपूरणफला, - श्राजीवित्र मित्त होइ पव्वजा। धूलि हडीरायत्तण-सरिसा, - सव्वेसिं हसणिजा ॥२॥
योग्य नियमों के पालन रहित प्रव्रज्या (दीक्षा) स्वयं के उदरपूर्ति स्वरूप आजीविका के समान है, अतः नियम रहित