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ते धन्ना ते पुन्ना,
तेसु पणामो हविज महनिच्च । जेसिं गुणाणुरायो,
अकित्तिमो होई अणवरयं ॥३॥ ___ वे धन्य तथा कृतार्थ जीवन वाले हैं एवं पुण्यशाली हैं उन्हें हमारा सदा नमस्कार हो जिनके हृदय में सदा सच्चा गुणानुराग रहा हुआ है ॥ ३ ॥ किं बहुणा भणिएणं,
किं वा तविएण किं वा दाणेणं । इक्कं गुणानुरायं,
सिक्खह सुक्खाण कुलभवणं ॥४॥ अधिक पढने से क्या तात्पर्य ? या अत्यधिक तप से भी क्या प्रयोजन ? या अतिदान का भी क्या फल ? क्योंकि एक ही गुणानुराग सारे सुखों-फलों को देने वाला सुखों का गृह है तो फिर मात्र गुणानुराग की ही आराधना करो ॥४॥ जइ वि चरसि तव विउलं,
पठसि सुयं करिसि विवहकट्ठाई ।