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यदि तू इर्षा रूपी घोर अन्धकार के कारण अन्धा होकर गुणवन्त पुरुषों के गुणगान के बदले दोषों को कहना शुरु करेगा या उनकी निन्दा करेगा तो अनेकानेक जन्मों तक अपार संसार में भ्रमण करता रहेगा ॥ ७ ॥ जं अब्भसेई जीवो,
गुणं च दोसं च इत्थ जम्मम्मि । तं पर लोए पावई,
अभासेणं पुणो तेणं ॥८॥ जीव इस भव में गुण या दोष में से जिसका अभ्यास करता है, उसी अभ्यास के कारण आने वाले भवों में भी उन्हीं गुणों को प्राप्त करता है ॥ ८॥ जो जंपइ परदोसे,
गुणसयभरिश्रो वि मच्छरभरेणं । सो विउसाणमसारो,
पलालपुजव्व पडिभाइ ॥१॥ जो सेंकड़ों गुणों से युक्त होते हैं यदि वे भी पर इर्षा से पराया दोष छिद्रान्वेषण करते है तो वे विद्वान् पुरुष भी पराल के गट्ठर (पूज) की तरह निरर्थक होते हैं ॥४॥