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जो परदोषे गिरह, संता संते विदुट्ट भावें ॥ जो अप्पाणं बंध पावेण निरत्थपणावि
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जो दुष्टस्वभाव वश या असद्भावना से भूताऽभूत् विद्य या अविद्यमान दोषों को ग्रहण करता है वह मनुष्य स्वयं की आत्मा को निरर्थक पाप से बांधते हैं ॥ १० ॥
तं नियमा मुत्तव्वं,
जत्तो उप्पज्जए कसायग्गी ।
तं वत्थु धारिजा, जेणोवसमो कसायाणं
॥११॥
जिन नियमों से कषाय प्रदिप्त होता है उन्हें अवश्य ही छोड़ देना चाहिये तथा जिन वस्तुओं से कषाय शान्त होता है उन्हें ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् पराया दोष नहीं देखना चाहिये क्योंकि इससे कषाय बढते हैं तथा गुणों को छोडना नहीं चाहिये क्योंकि इससे कषाय दबते हैं ॥ ११ ॥
जइ इच्छह गुरुयत्तं,
तिहुयण मज्झम्मि अपणो नियमा ।