Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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परिकर्म
जयधवलासहित कषायप्राभृत
प्रदेशविभक्ति अधिकारमें एक स्थानपर लिखा है
"ण परियम्मेण वियहिचारो तत्थ कलासंखाए विवक्त्वाभावादो ।"
अर्थात् -"परिकर्म से व्यभिचार नहीं आता है क्योंकि वहां कलाकी संख्या की विवक्षा नहीं है ।" इससे स्पष्ट है कि यह परिकर्म गणितशास्त्रका ग्रन्थ है। धवला में भी इसका उल्लेख बहुतायत से पाया जाता है । पहले घवलाके सम्पादकोंका विचार था कि यह परिकर्म कुन्दकुन्दाचार्यकृत कोई व्याख्या ग्रन्थ है किन्तु बादको गणितशास्त्रविषयक उसके उद्धरणोंका देखकर उन्हें भी यही जंचा कि यह कोई गणितशास्त्रका ग्रन्थ है । इसकी खोज होना आवश्यक है ।
नयके विवरण में जयधवलाकारने नय का एक लक्षण उद्धृत करके उसे सारसंग्रह नामक
ग्रन्थ का बतलाया है | धवलामें भी " सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादः " करके यह लक्षण उद्धृत सारसंग्रह किया गया है। इससे स्पष्ट है कि श्री पूज्यपादस्वामी का सारसंग्रह नामक भी एक ग्रन्थ था । यह ग्रन्थ आज अनुपलब्ध है अतः उसके सम्बन्धमें कुछ कहना शक्य नहीं है । निक्षेपोंमें नययोजना करते हुए जयधवलाकारने 'उत्तं च सिद्ध सेणेण' लिखकर एक गाथा उद्धृत की है । यह गाथा सन्मतितर्कके प्रथमकाण्ड की छठवीं गाथा है । आगे उसी गाथाके सम्बन्ध में लिखा है । 'ण च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो ।' अर्थात् ऐसा माननेसे सन्मति के सिद्धसेनका उक्त सूत्र के साथ विरोध नहीं आता है । इससे स्पष्ट है कि सिद्धसेन और उनके सम्मइसुत्त सन्मतितर्क का उल्लेख किया गया है । जैन परम्परामें सिद्धसेन एक बड़े भारी प्रखर तार्किक हो गये हैं। आदिपुराण और हरिवंशपुराणके प्रारम्भ में उनका स्मरण बड़े आदर के साथ किया गया है । दिगम्बर परम्परामें उनके सन्मतिसूत्र का काफी आदर रहा है । जयधवला प्रकृत मुद्रित भागमें ही उसकी अनेकों गाथाएँ उद्धृत हैं ।
नयी चर्चा करते हुए जयधवलाकारने सारसंग्रहीय नयलक्षरण के बाद तत्त्वार्थभाष्यगत तत्त्वार्थ- नयके लक्षण को उद्धृत किया है । यथा
भाष्य
"प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः । अयं वाक्यनयः तत्त्वार्थभाष्यगतः । अस्यार्थ उच्यतेप्रकर्षेण मानं प्रमाणं सकलादेशीत्यर्थः । तेन प्रकाशितानां प्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थः । तेषामर्थानामस्तित्वनास्तित्वनित्यानित्याद्यनन्तात्मनां जीवादीनां ये विशेषाः पर्यायाः तेषां प्रकर्षेण रूपकः प्ररूपकः निरुद्धदोषानुषङ्गद्वारेणेत्यर्थः स नयः ।”
यह नयका लक्षण श्री भट्टाकलंकदेवके तत्त्वार्थराजवार्तिकका है । तत्त्वार्थसूत्र के पहले अध्याय के अन्तिम सूत्रकी पहली वार्तिक है - " प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः । ” और ऊपर जो उसका अर्थ दिया गया है वह अकलंकदेवकृत उसका व्याख्यान है । श्री वीरसेन स्वामीने धवला और जयधवला में अकलंकदेव के तत्त्वार्थराजवार्तिकका खूब उपयोग किया है और सर्वत्र उसका उल्लेख तवार्थभाष्य के नामसे ही किया है ।
धवला में एक स्थान पर नयका उक्त लक्षण इस प्रकार दिया गया है
'' पूज्यपाद भट्टारकै रप्यभाणि- सामान्यलक्षणमिदमेव । तद्यथा - प्रमाणप्रकाशितार्थ विशेष प्ररूपको य इति ।" इसके आगे 'प्रकर्षेण मानं प्रमाणम्' आदि उक्त व्याख्या भी दी है। इससे स्पष्ट है कि धवलाकार यहां 'पूज्यपाद भट्टारक' शब्दसे अकलंकदेवका ही उल्लेख कर रहे हैं, न कि सर्वार्थ
(१) प्रे० का० पृ० २५६६ । ( २ ) षट्खण्डा० १ भा० प्रस्ता० पृ० ४६ । (३) पृष्ठ २१० । (४) पृष्ठ २६० । (५) पु० २१० । (६) घ० आ० प० ५४२ ।
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