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रियल धर्म : रिलेटिव धर्म
नहीं होता। खुद आत्मा होने के बाद निष्पक्षपाती बनता है। फिर मन-बुद्धिचित्त और अहंकार का, वाणी का या देह का पक्षपात नहीं रहता। यह तो आरोपित भाव से अहंकार के कारण तन्मयाकार हो जाता है। आत्मा होने के बाद इन सब को वह 'खुद' अलग रहकर देखता और जानता है।
पूरा जगत् रिलेटिव धर्म का पालन करता है। देह के धर्म, वाणी के धर्म, मन के धर्मों का ही पालन करता है। देह के धर्मों को ही 'खुद का धर्म है,' ऐसा मानता है। वह रिलेटिव धर्म हैं, और 'आत्मा ही धर्म है' ऐसा मानता है, वही आत्मधर्म कहलाता है। आत्मधर्म ही रियल धर्म है, वही स्वधर्म है, वही मोक्ष है। खुद का स्वरूप जान लेना है। आत्मा का धर्म ही स्वधर्म है, बाकी के सब परधर्म हैं।
आपके अंदर 'दादा भगवान' बैठे हैं, वे ही चेतन प्रभु हैं। वे ही परमात्मा हैं। वे ही हमारे अंदर प्रकट हुए हैं और आप में प्रकट होने बाकी है। यह धर्म नहीं है, यहाँ तो काम निकाल लेना है। कब तक धर्मशालाओं में बैठे रहेंगे? खुद का काम निकाल लेना है, मतलब क्या कि 'ज्ञानीपुरुष' से खुद का स्वरूप जान लेना है। 'ज्ञानीपुरुष' का दीया प्रज्वलित हुआ है, 'उससे' आपका दीया छुआ दो, तो आपका दीया भी प्रज्वलित हो जाए। यह तो, किसी काल में ही 'ज्ञानीपुरुष' प्रकट होते हैं, दस लाख सालों में अक्रम 'ज्ञानावतार' अवतरित होते हैं, तब घंटेभर में ही खुद का आत्मा प्रकट हो सके, ऐसा होता है। इसीलिए 'हम' कहते हैं कि अपना काम निकाल लो। यह देह तो 'बुलबुला' है, वह कब फूट जाएगा, वह कहा नहीं जा सकता। अंदर जो बैठे हैं वे 'दादा भगवान' हैं। ग़ज़ब के प्रकट हुए हैं, परमात्मा प्रकट हुए हैं, लेकिन जब तक यह बुलबुला रहेगा, यह देह रहेगी तभी तक लोगों का कल्याण हो सकेगा। क्योंकि अंदर प्रकट हो चुके 'दादा भगवान' हमारे वश में हैं। तीन लोकों के नाथ हमारे वश हो गए हैं ! उनके पास वाणी नहीं है, हाथ-पैर नहीं हैं, इसलिए हमारे वश हो गए हैं और हमें कल्याण का निमित्त बनाया है! इसलिए हम तो कह देते हैं कि जब तक यह बुलबुला है, तब तक काम निकाल लो।
यहाँ हमारे पास तो आत्मा, वही धर्म है। यहाँ तो अविरोधाभासी