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आप्तवाणी-२
निकल जाते हैं? यह तो बड़ा ऑफिसर है, फिर भी ऐसा हो जाता है! यह तो सोचने की चीज़ मुँह से निकल जाए तो दशा ही बिगड़ जाए न! लोग पूछे कि 'भाई, क्या बड़बड़ा रहे हो?' यह तो सोच रहा था कि सेठ को गोली मारनी है और सोचनेवाली बात यदि मुँह से लीक हो जाए तो! ये तो सभी छेदवाले, एक भी घड़ा साबुत नहीं। सास-बहू के बीच बवाल हो गई हो तो बड़बड़ाती रहती है! इन्हें तो फूटे हुए घड़े कहा हैं।
अपना घड़ा कैसा होना चाहिए कि ज़रा सा भी छेद नहीं हो, पानी भी नहीं रिसना चाहिए। 'रिसना' किसे कहते हैं? सामनेवाला व्यक्ति सार निकाल लेता है कि, 'ये क्या बड़बड़ा रहे हैं।' ऐसा नहीं होना चाहिए। अरे! बेटे को भी कुछ पूछना हो तो कहेगा, 'फिर पूछूगा, अभी नहीं।' बाप बड़बड़ा रहा हो तो बच्चे भी समझ जाते हैं न?
उस ऑफिसर का बॉस के साथ कुछ झंझट हो गया होगा, इसलिए बड़बड़ा रहा था। बॉस तो कौन? कि जो झंझट करे उसका नाम बॉस! हमें किसी को अन्डरहैन्ड रखना हो तो हमारा कोई बॉस तो बनेगा ही न?
__ आज का वर्ल्ड तो पागलों के हॉस्पिटल जैसा हो गया है, वह अभिप्राय देकर फिर कब बदल डाले वह कहा नहीं जा सकता। अभी कहे कि, 'आप तो बहुत समझदार हो।' और किस घड़ी 'आप बेअक़्ल हो।' ऐसा सर्टिफिकेट थमा दें, वह कहा नहीं जा सकता। ऐसे मेन्टल लोगों के सर्टिफिकेट से क्या डरना? ये तो कैसा बोलेंगे, वह कहा नहीं जा सकता। मेन्टलों में सयाने रहने जाएँ तो रहा नहीं जा सकेगा। अभी तो सारे ही मेन्टल हैं, ये गायें-भैंसें समझदार हैं।
रास्ते पर लोगों को देखें तो क्या ऐसा होता है कि चला सालभर साथ में रहें? अरे, आजकल तो उल्टी आए ऐसे लोग हैं। चारों कालों में से फेंका हुआ माल, उसमें रिलेशन क्या रखना? तू चोकर (बचा-खुचा माल) और वह भी वैसा ही चोकर माल!
आज तो रूबरू मिलनेवाले संदेशे भी सही नहीं मिलते हैं। इन्हें तो पूछे क्या और ये बोलते क्या हैं? ऐसा विचित्र हो गया है!
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