________________
३२४
आप्तवाणी-२
वही इच्छा। ये कपड़ा खींचकर बेचते हैं, वही रौद्रध्यान है, 'इतना कपड़ा तो बचेगा' ऐसा कहेगा । यह हिसाब तो कैसा है? यदि ९,९९९ रुपये मिलनेवाले हैं, तो रौद्रध्यान से भी इतने ही मिलेंगे और उस ध्यान के बिना भी इतने ही मिलेंगे। यह तो बल्कि कपड़ा खींचकर ध्यान बिगाड़ता है और कहेगा कि, ‘कमाने के लिए ऐसा तो करना पड़ता है न?' इन लोगों को ऐसी श्रद्धा नहीं रहती कि लक्ष्मी जी आएँगी । अरे, जिस श्रद्धा से तूने दुकान खोली है, उस श्रद्धा के प्रति ध्यान मत बिगाड़ना और उसी श्रद्धा से लाभ मिलेगा, ऐसा रखना।
जगत् के सभी लोग अंधश्रद्धा से चल रहे हैं, मोटर चलानेवाला भी अंधश्रद्धा से चलाता है । 'ज्ञानीपुरुष' मोटर में बैठते हैं तो कहते हैं कि, ‘या तो टकराएगी या फिर बचेगी जो हो, सो भले ही हो' । यह तो ज्ञान नहीं है फिर भी अंधश्रद्धा पर चलाता है !
बुद्धि संसारानुगामी ही
भटकनेवाले के दोष की वजह से भटकानेवाले उत्पन्न होते हैं । भटकानेवाले तो बहुत भुगतेंगे, क्योंकि खुद की बुद्धि से सामनेवाले से लाभ उठाया। बुद्धि से तो यह देखना होता है कि, सामनेवाले को लाभ कैसे हो, लेकिन यह तो दुरुपयोग करता है, उसे व्यभिचारिणी बुद्धि कहा है। कृष्ण भगवान ने गीता में बुद्धि को व्यभिचारिणी कहा है। बुद्धि से ऐसा कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है, सहज रूप से प्राप्त हो, ऐसा यह जगत् है। यह तो भोगना नहीं आता, वर्ना मनुष्य जन्म में भोग सकता है, ऐसा है, लेकिन यह मनुष्य तो भोग ही नहीं सकता और फिर उनके टच में आनेवाले सभी जानवर भी दुःखी हुए हैं । अन्य करोड़ों जीव हैं फिर भी सिर्फ ये मनुष्य ही दु:खी हैं, क्योंकि सभी का दुरुपयोग किया, बुद्धि का, मन का, सभी का । यह मनुष्य अकेला ही निराश्रित है । 'सामने लुटेरा आ जाए तो मेरा क्या होगा,' ऐसा विचार इन मनुष्यों को ही आता है । 'मैं किस तरह चलाऊँगा? मेरे बिना चलाएगा ही कौन ? ' ऐसी जो चिंता करते हैं वे सभी निराश्रित हैं। जबकि जानवर भगवान के आश्रित हैं। उन्हें तो खानेपीने को आराम से मिलता है, उनके लिए डॉक्टर, हॉस्पिटल ऐसा कुछ