Book Title: Aptavani Shreni 02
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 432
________________ वेदांत ३९५ प्रश्नकर्ता : 'तू ही, तू ही ' शास्त्रों में लिखा हुआ है, वह क्या है ? दादाश्री : क्रमिक मार्ग में 'तू ही, तू ही,' वह पहुँचने का साधन है, आत्मा तू ही है सब ओर, मैं तो कहीं हूँ ही नहीं, फिर भी 'तू ही, तू ही' में आत्मा के प्रति भेद रहता है। श्रद्धा और ज्ञान से एक रहता है, लेकिन चारित्र से भेद पड़ता है । हम तो 'मैं ही, मैं ही' बोलते हैं । 'तू' और ‘मैं' का भेद डालेंगे तो कब ठिकाना पड़ेगा ? ये तो जैसे भगवान और भक्त, ऐसे ही 'मैं' और 'तू' दोनों अलग हैं, ऐसा भेद पड़े, तब फिर अपना ठिकाना कब पड़ेगा? फिर भी, उन्हें कोई 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ तो हल आ जाएगा। शक्तिपात प्रश्नकर्ता : शक्तिपात का मतलब क्या है? दादाश्री : एक छह फुट का पानी का झरना है, प्रपात है। अब आपको बूट निकालने में मुश्किल होती है, और आप खड़े रह जाते हो । दो-पाँच लोग तो आपको देखते-देखते ही उस झरने पर से कूद जाते हैं और आपका मन पीछे हटता है, तब मैं कहूँ कि, 'अरे, चंदूभाई, क्या खड़े हो ? कूद जाओ।' और आप तुरंत ही कूद जाते हो। यह शक्तिपात का उदाहरण है। शक्तिपात और मोक्ष में कुछ भी संबंध नहीं है । यह तो पौद्गलिक शक्तिपात कहलाता है । यह तो बढ़ता है और घटता है, देनेवाले की शक्ति घटती है और लेनेवाले की बढ़ती है । प्रश्नकर्ता : तालू पर जीभ लगाकर अमृत निगलने के लिए कहते हैं, वह क्या है? दादाश्री : यह सारा हठाग्रहियों का मार्ग है, जिन्हें मार खाने की आदत हो गई है, उन्हें ऐसा मार्ग पकड़ना चाहिए । अरे, तुझे क्या ज़रूरत पड़ गई इसकी? जीभ और तालू पुद्गल हैं । रस टपकेगा, वह भी पुद्गल है, वह आत्मा नहीं है। वह तो मेहनत का फल है। आइसक्रीमवाले कोठी का हेन्डल मारते हैं तो उसे मेहनत का फल आइसक्रीम खाने को मिलती है न? दुनिया के साधु-सन्यासी सबके अंदर निरंतर विष की बूँदें गिरती

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