Book Title: Aptavani Shreni 02
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 447
________________ ४१० आप्तवाणी-२ इच्छा किसे होती है? वास्तव में किसी को भी इच्छा नहीं है, जो-जो आत्मा रूप हैं, उन्हें किसी को भी इच्छा नहीं है। यह तो भ्रांति उत्पन्न हुई है। यह तो जैन धर्म ने आत्मा को इच्छावान ठहरा दिया है अभी! आत्मा इच्छावान होता न, तब तो फिर वह भिखारी ही है। आत्मा इच्छा करता ही नहीं है। आत्मा तो परमात्मा है, उसे इच्छा हो सकती है? आत्मा खुद वीतराग ही है पहले से। यह तो भ्रांति से इच्छा खड़ी हो गई है। अहंकार को इच्छा खड़ी हो गई है। जब अहंकार नहीं रहेगा, तब इच्छा भी नहीं रहेगी। यह तो अहंकार की इच्छा है, आत्मा की कहीं इच्छा होती होगी? तब तो फिर एक साधारण व्यक्ति और उसमें फर्क ही नहीं रहा न। आत्मा खुद परमात्मा है और उसे किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। शुरू से ही नहीं थी, अभी भी नहीं है और भविष्य में भी नहीं होगी। यह तो खुद फँसा हुआ है। यदि अहंकार चला जाए, उसका विलय हो जाए तो कुछ भी नहीं है, मोक्ष ही है, इच्छा ही नहीं रहेगी फिर तो। अभी तो जैनमार्ग में और अन्य सभी मार्गों में कहते हैं न कि, 'आत्मा को तो इच्छा है न?' अरे भाई, आत्मा को यदि इच्छा होती तो वह आत्मा ही कैसे कहलाता? आत्मा को यदि इच्छावान कहते हो तो उस द्रव्य को जाना ही नहीं है आपने! पीतल को और सोने को पहचानते नहीं हो आप, पीतल को सोना कहते हो! सोना तो उसके खुद के गुणधर्म में है, परमात्मा स्वरूप में है, अभी भी परमात्मा स्वरूप में बैठा हुआ है, उनका परमात्मा स्वरूप वे कभी भी चूके ही नहीं। भले ही वे जंजाल में आ गए हैं, लेकिन जंजाल में भी वे खुद चूके नहीं हैं। जंजाल में उनके ज्ञान पर अंतराय आया है, अन्य कुछ भी अंतराय नहीं है। ज्ञान, दर्शन पर अंतराय है। उससे उन्हें कोई नुकसान नहीं है। जिसे यह अहंकार है, उसे नुकसान है। इन्हें क्या नुकसान है? इन्हें तो भीतर परमानंद है। वे खुद अनंत सुख का धाम हैं। रात को सो जाता है न, तब पागल को भी सुख आता है। यदि अच्छी गहरी नींद सो जाए न, तो भी उसमें उसे थोड़ा, उसका (आत्मा का) आभास होता है कि, 'अरे, यह सुख तो अंदर ही है। क्योंकि रात को कोई भी विषय नहीं आया, रात को नींद में कोई विषय नहीं भोगे, यों ही गहरी नींद सो गया तो किसमें से सुख आया?'

Loading...

Page Navigation
1 ... 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455