Book Title: Aptavani Shreni 02
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 438
________________ वेदांत ४०१ लगेंगे! कविराज ने दादा के लिए गाया है न कि, (१) कल्पे कल्पे जन्मे छे ते कल्पातीत सत्पुरुष, श्री रणछोडरायनुं हृदयकमळ 'हं' ज छु। परात्पर पुरुष गीतागायक 'हुं' ज छु। (२) मुरलीना पडघे झूमी जमना बोली, श्री कृष्णना प्रकाशक आवी गया छ। 'वैष्णवजन तो तेने रे कहीए....' इस परिभाषावाला एक भी वैष्णव मिलता ही नहीं। मर्यादा मतलब अंशधर्म, लिमिटेड धर्म, उसका पालन करे तो अच्छा, लेकिन यह तो पूरे दिन क्लेश करता है। एकादशी तो किसे कहते हैं? पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन - इन सब को एक दिन काबू में रखना होता है ! यह तो पति को एकादशी के दिन डाँटती है कि, 'आप यह नहीं लाए और वह नहीं लाए!' उसे ऐसा कैसे कहेंगे कि एकादशी की? धर्म तो ऐसी एकादशी करने से धर्म नहीं मिल सकता। हमारी आज्ञानुसार कोई एक एकादशी करे तो दूसरी करनी ही नहीं पड़ेगी!

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