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आप्तवाणी-२
अद्वैत तत्व, वह त्याग करते-करते अहंकार को अद्वैत करता है, यानी कि अद्वैत तत्व ऐसा है कि द्वैत में से अद्वैत में आता है, इसलिए तब तक 'मैं' रहता है। जब तक खुद के स्वरूप का भान नहीं होगा, तब तक यह सारी मायावी वाणी है, लोगों को बहुत अच्छी लगेगी, ये सब स्टेपिंग हैं। जब तक स्वरूप का भान नहीं हो जाता तब तक इसकी ज़रूरत है, लेकिन ऐसा है कि स्वरूप का भान तो अंत में जब 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ और उनकी कृपा हो जाए, तभी हो सकता है!
अनेकांत से मोक्ष वेदांती क्या कहते हैं? 'आत्मा निर्मल है, हम अद्वैत हैं।' उन्होंने आग्रह से आत्मा को अद्वैत कहा है, वह यथार्थ नहीं है। जैन आग्रह से आत्मा को कर्ता और भोक्ता मानते हैं, वह भी फेक्ट बात नहीं है। निराग्रही होना चाहिए। आत्मा द्वैताद्वैत है। अद्वैत से मोक्ष है, ऐसा कहते हो, लेकिन उससे एक भी विकल्प नहीं जाएगा, क्योंकि द्वैत से आगे बढ़े ही नहीं हो। अद्वैतवाले को द्वैत से आगे जाना पड़ेगा और द्वैतवाले को अद्वैत से आगे जाना पड़ेगा, तब द्वैताद्वैत हुआ जा सकेगा। द्वैत और अद्वैत के दोनों पंख साथ में होंगे तब उड़ा जा सकेगा, एक पंख से नहीं उड़ा सकेगा। भगवान की वाणी ऐसी स्यादवाद होती है कि दुनिया के एक भी जीव का प्रमाण नहीं दुभे। द्वैताद्वैत एक साथ किस तरह से हो सकता है? होम डिपार्टमेन्ट में हम अद्वैत हैं और फॉरेन डिपार्टमेन्ट में हम द्वैत हैं, इसलिए द्वैताद्वैत कहा है। जब तक देह है, संसार अपेक्षा बाकी है, तब तक द्वैताद्वैत है। यदि संसार अपेक्षा नहीं होती, तब तो इस द्वैताद्वैत की ज़रूरत ही नहीं रहती।
___ 'सिर्फ द्वैत से या सिर्फ अद्वैत से ही मोक्ष है' ऐसा मानकर चलोगे तो एक भी विकल्प नहीं जाएगा। इस अद्वैत से तो लोग भटक गए हैं। कोई भी विकल्प से पार नहीं जा सका है। अद्वैत, द्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, ऐसी तरह-तरह की दुकानें खोलकर लोग बैठे हैं! इनके गुरु और उनके भी गुरु सभी भटक गए हैं। सिर्फ 'ज्ञानीपुरुष' दुकान नहीं खोलते, क्योंकि वे द्वैताद्वैत हैं। जब तक मोक्ष में नहीं गए, तब तक आत्मा कैसा है? द्वैताद्वैत है। हम इस अद्वैतवाले से पूछे कि 'तू कौन है?' तो कहेगा कि, 'मैं