Book Title: Aptavani Shreni 02
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 425
________________ ३८८ आप्तवाणी-२ स्थितप्रज्ञ दशा से तो दुनिया को और सभी तत्वों को जानता है, पहचानता है, उसी को शुद्ध समकित कहते हैं। हम जो स्वरूपज्ञान देते हैं, उससे तो आत्मा की डायरेक्ट अनुभूति होती है, वह 'परमार्थ समकित' है, उससे जगत् को और जगत् के तत्वों को देखा जा सकता है, पहचाना जा सकता है और अनुभव किया जा सकता है! स्थितप्रज्ञ दशा में इमोशनल नहीं होता। मोशन में रहे वह स्थितप्रज्ञ, लेकिन समाधि उत्पन्न नहीं होती। ज्ञान के बिना समाधि उत्पन्न नहीं होती। भ्रांति चली जाए, तब समाधि उत्पन्न होती है! गीता में कृष्ण भगवान अंतिम स्टेशन किसे कहना चाहते हैं? उसमें स्थितप्रज्ञ दशा, वही अंतिम स्टेशन है। यह स्थितप्रज्ञ दशा प्राप्त कर' ऐसा कहते हैं। लेकिन लोगों को उनसे पूछना पड़ा कि, 'स्थितप्रज्ञ क्या खाता है? वह क्या पीता है?' तब भगवान को समझाना पड़ा कि, 'जो प्रज्ञा में स्थिर हो चुके हैं, वे असार को एक ओर रख देते हैं और सार को ग्रहण करते हैं, वह स्थितप्रज्ञ दशा!' और यह आपकी शुद्धात्मा दशा, यह तो उससे भी बहुत ऊँची दशा है। कृष्ण भगवान ने लिखा है न कि 'तू वीतराग बनेगा तो निर्भय हो जाएगा!' प्रज्ञाशक्ति दो प्रकार की शक्तियाँ हैं। आत्मा का तो वैसे का वैसा ही स्वरूप है, जैनों में, वैष्णवों में, मज़दूरों में, सभी के आत्मा एक ही स्वरूपवाले हैं, लेकिन सिर्फ दो ही प्रकार की शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। अज्ञान के ही संयोग मिलें, तब अज्ञाशक्ति उत्पन्न होती हैं, उसे अज्ञानब्रह्म कहा जाता है, उससे जगत् का सर्जन होता है। यह अज्ञाशक्ति ठेठ तक संसार से बाहर ही नहीं निकलने देती। पूरा संसारकाल पूर्ण होने तक, अनंतकाल तक अज्ञाशक्ति ही सभी चला लेती है। जब 'ज्ञानीपुरुष' का संयोग मिलता है, तब वे ज्ञान देते हैं, फिर प्रज्ञाशक्ति उत्पन्न होती है, उसे प्रज्ञानब्रह्म कहा जाता है। प्रज्ञा, वह अज्ञान के संयोगों का वियोग करवाकर विसर्जन करवाती है और निरंतर मोक्ष की तरफ, मुक्ति की तरफ प्रयाण करवाती है,

Loading...

Page Navigation
1 ... 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455