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अहंकार
डिस्चार्ज होता हुआ अहंकार है, जबकि क्रमिक मार्ग में जो अहंकार रहता है, उसमें 'मुझे यह करना है, मुझे यह त्यागना है' ऐसा रहता है । इसलिए क्रमिक मार्ग का अहंकार वह कर्मचेतना है, उससे नया चार्ज होता जाता है और यहाँ अक्रम मार्ग में अहंकार, वह कर्मफल चेतना है । फिर भी वह नैमित्तिक है। क्रमिक मार्ग में अहंकार कर्म बंधवाता है क्योंकि वहाँ पर तो यह त्याग दिया और वह बाकी है, ऐसा रहा करता है । अब त्याग किया वह पहले के अहंकार से है, और वापस नये कर्म बाँधता जाता है। 'ज्ञानीपुरुष' तो, जिससे कर्म बंधते हैं, उसी को पूरा उड़ा देते हैं । यह तो कितना आसान है ! सरल है ! सहज है ! और कोई वहाँ क्रमिक में गया न, तब तो बाल ही उड़ा देते हैं और यहाँ तो बाल-वाल सभी चलता है!
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इस अहंकार ने तो सबकुछ बिगाड़ दिया है, और कुछ भी नहीं। ज्ञानी के अधीन रहें तो हल आ जाएगा । सयाना हुआ अहंकार खुद की होशियारी नहीं लगाता, जबकि पागल अहंकार तो कुरेदता है ! इसलिए या तो बात को समझना पड़ेगा या फिर ज्ञानी के अधीन रहना पड़ेगा । पागल अहंकार में तो अधीन रहने की शक्ति नहीं होती, इसलिए तीस दिन तक अधीन रहता है और इकत्तीसवें दिन फेंक देता है यानी ये वृत्तियाँ कब आगे-पीछे हो जाएँ, वह कहा नहीं जा सकता । जितना अहंकार का रोग भारी उतनी ही मुश्किलें अधिक । अधीनता के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं है न!
हमारा ‘ज्ञान' प्राप्त करने के बाद अहंकार तो सभी में रहता है, लेकिन वह 'निकाली अहंकार' होता है । 'निकाली अहंकार' मतलब कैसा ? कि जैसे मोड़ो वैसे मुड़ जाता है, पागलपन नहीं करता ।
पागल अहंकार
इस पागल अहंकार से कहें कि, 'तुझे कहाँ मान मिला? कहाँ तान मिला? कौन से स्वाद मिले? किसलिए अहंकार करता है? तेरी कहाँ १३०० रानियाँ हैं? तेरे कहाँ बाग-बगीचे थे? यह क्या तूफ़ान मचाया है?