Book Title: Aptavani Shreni 02
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 404
________________ आलोचना-प्रतिक्रमण - प्रत्याख्यान है, आक्रमण का दोष भयंकर है । यह भीतर उल्टा - सुल्टा विचार आता है वह अतिक्रमण, लेकिन 'इसे सीधा कर दूँ, मेरा जो होना हो वह होगा, लेकिन तुझे तो कर ही दूँगा,' ऐसे सभी भाव, वे आक्रामक भाव हैं। स्वरूपज्ञान की प्राप्ति के बाद आक्रामक भाव नहीं रहते, फिर भी अतिक्रमण होते हैं। जो सामान्य होना चाहिए यदि उससे विशेष हो, अति हो, तो वह अतिक्रमण है। आक्रामक भाव गया मतलब कि वीतरागता में आया । आक्रामक भाव और अतिक्रमण भाव में बहुत डिफरेन्स है । स्वरूपज्ञान मिलने के बाद किसी पर अभाव भाव होता रहे और भीतर झंझावात जैसा चले, उसमें आक्रमक भाव नहीं होता। वैसे अभावभाव आक्रमण करवाकर नहीं जाते, लेकिन अतिक्रमण करवाकर जाते हैं, इसलिए उनके प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान बाकी रहते हैं । एक ही व्यक्ति के लिए ऐसे अतिक्रमण, ऐसे अभाव भाव हज़ार - हज़ार बार भी आ सकते हैं और उसके लिए हज़ार-हज़ार बार आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करेंगे तभी ऐसे भारी अतिक्रमण से छूट पाते हैं । इस ज्ञान के बाद अपने में कण मात्र भी अभाव भाव होना ही नहीं चाहिए। अब तो हमें नई लड़ाई नहीं करनी है और जो पुरानी लड़ाई है उसका निकाल ही करना है ! सामूहिक प्रतिक्रमण ३६७ प्रश्नकर्ता : सामूहिक (जाथु) प्रतिक्रमण किसे कहते हैं ? दादाश्री : सामूहिक प्रतिक्रमण किसे कहते हैं? जो एक साथ याद आएँ उसके लिए। कोई एक व्यक्ति लगातार भीतर याद आता रहे तो उसका सामूहिक प्रतिक्रमण करना पड़ेगा । सामूहिक मतलब निरंतर । स्मृति वह राग-द्वेष का दर्पण है। उसके लिए कभी ही प्रतिक्रमण करना पड़ता है, लेकिन सामूहिक में तो जितनी बार याद आए, उतनी बार प्रतिक्रमण करना पड़ता है। जिस व्यक्ति के साथ अपने से गाँठें पड़ गई हों और वह मर चुका हो तो उसे याद करके गुत्थियाँ धो डालनी चाहिए, ताकि शुद्ध होकर निकाल हो जाए और गुत्थियाँ सुलझ जाए । आलोचना, प्रतिक्रमण और

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