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आप्तवाणी-२
कोठी खाली होती जाती है। विषय याद आते हों, तब आलोचना-प्रतिक्रमण
और प्रत्याख्यान करें, तो विषय याद ही नहीं आएँगे। ये तो पहले का माल ही कोठी में भरा हुआ है न! वह माल निकले तब याद आता है और उसका आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करें तो खाली होता जाता है और तब फिर अंत में कोठी को खाली हुए बिना चारा ही नहीं है।
प्रश्नकर्ता : दादा, घर में तरह-तरह का सामान लाने का मोह है, साड़ियाँ खरीदने का मोह है, उन सबके प्रतिक्रमण कैसे करने चाहिए?
दादाश्री : वे तो सब नोकर्म कहलाते हैं। यदि 'तू चंदू है' तो वे तेरे हैं, नहीं तो वे तेरे नहीं हैं। यह मोह यदि मूर्छा करवाए और मूर्छा उत्पन्न हो, तब उस घड़ी प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। वह भी, कोठी में माल भरा है उसके लिए प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं। कोठी में से जो-जो माल निकले उन सभी के आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करने पड़ेंगे, वह भी हमें नहीं करने हैं, 'चंदू' से करवाने हैं। जो खाए उसकी गुनहगारी, हम खाते नहीं है यानी हम 'शुद्धात्मा' हैं, तो फिर प्रतिक्रमण किसके करने हैं?
जैसे-जैसे आत्मा का ज्ञाता-दृष्टापन कम होता जाता है, वैसे-वैसे शौर्य कम होता जाता है, लेकिन जैसे-जैसे ज्ञाता-दृष्टापन बढ़ता जाता है, वैसेवैसे शौर्य बढ़ता जाता है।
प्रतिक्रमण शुरू हुए मतलब चौथा गुणस्थानक शुरू हुआ!
जितने अतिक्रमण और आक्रमण किए हैं, उनका प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करना। ये सदाचार, दुराचार, यह कोई अपने हाथ की बात नहीं है, वह तो कुछ और ही चीज़ों के अधीन है, लेकिन दुराचार होते समय अतिक्रमण और आक्रमण होता है, उसका प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करना चाहिए।
आक्रमण और अतिक्रमण प्रश्नकर्ता : आक्रमण और अतिक्रमण में क्या फर्क है? दादाश्री : दोनों में बहुत फर्क है। अतिक्रमण का दोष उतना नहीं