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आप्तवाणी-२
दादाश्री : भगवान को उस समय ऐसा बोलने का निमित्त था। अर्जुन को मोह उत्पन्न हुआ था, क्षत्रिय धर्म होने के बावजूद वह मूर्छित हो चुका था। इसलिए मूर्छा निकालने के लिए कृष्ण भगवान ने अर्जुन को सावधान किया और कहा, 'तेरी मूर्छा उतार, तू तेरे धर्म में आ जा। कर्म का कर्ता या अकर्ता तू मत बनना।' कृष्ण 'व्यवस्थित' जानते थे और 'व्यवस्थित' के नियम में जितना था उतना ही कृष्ण बोले हैं, लेकिन लोगों की समझ में नहीं आता और कहते हैं कि भगवान ज्ञानी होकर ऐसा क्यों बोले कि, 'इन सब को मार डाल?' यह तो कृष्ण का ऑन द मोमेन्ट का उपदेश था, कोई हमेशा के लिए यह उपदेश नहीं दिया कि, 'मारना ही।' अर्जुन को सभी रिश्तेदारों को देखकर मोह उत्पन्न हो गया था। भगवान जानते थे कि थोड़ी देर के बाद मोह उतर जाएगा, इसलिए कृष्ण भगवान ने नैमित्तिक रूप से बात की थी। उन्होंने अर्जुन से कहा, 'तू क्षत्रिय है और तेरे परमाणु लड़े बिना रहेंगे ही नहीं, हमें ज्ञान में यह दिख रहा है कि तेरा व्यवस्थित ऐसा है। इसलिए तू झूठा मोह मत करना। मारने के लिए मोह के बिना कार्य कर, झूठा अहंकार मत करना।'
श्री कृष्ण ने नेमिनाथ भगवान से दिव्यचक्षु प्राप्त किए थे, उसके बाद उन्होंने यह गीता का उपदेश दिया था।
गीता में तो कृष्ण भगवान दो ही शब्द कहना चाहते हैं। वे दो शब्द लोगों की समझ में आ सकें, ऐसा नहीं है। इसलिए गीता का इतना बड़ा स्वरूप दिया और उस स्वरूप को समझने के लिए लोगों ने फिर से विवेचन लिखे हैं। कृष्ण भगवान ने खुद ने कहा है कि, 'मैं जो गीता में कहना चाहता हूँ उसका स्थूल अर्थ एक हज़ार में से एक व्यक्ति समझ सकेगा। ऐसे एक हज़ार स्थूल अर्थ समझनेवाले व्यक्तियों में से एक व्यक्ति गीता का सूक्ष्म अर्थ समझ सकेगा। ऐसे एक हज़ार सूक्ष्म अर्थ समझनेवालों में से एक व्यक्ति सूक्ष्मतर अर्थ को समझ सकेगा। ऐसे एक हज़ार सूक्ष्मतर अर्थ को समझनेवालों में से एक व्यक्ति गीता का सूक्ष्मतम अर्थ अर्थात् मेरा आशय समझ सकेगा!' कृष्ण भगवान क्या कहना चाहते थे कि 'वही एक' उसे समझ सकेगा। अब इस साढ़े तीन अरब की बस्ती में कृष्ण