________________
३६०
आप्तवाणी-२
किया, चाय के साथ नाश्ता किया, वह सब नक़द किया! वैसे ही वाणी की क्रिया भी नक़द होती है और मन की क्रिया भी नक़द होती है। वैसे ही इस अतिक्रमण के सामने प्रतिक्रमण भी नकद, ऑन द मोमेन्ट होना चाहिए। जैसे-जैसे प्रतिक्रमण नक़द होता जाएगा, वैसे-वैसे चोखा होता जाएगा। अतिक्रमण के सामने हम नक़द प्रतिक्रमण कर लें तो मन, वाणी चोखे होते जाएँगे!
लोग अतिक्रमण को नहीं समझते और प्रतिक्रमण को भी नहीं समझते। उनका एक साथ बारह महीने में 'मिच्छामि दुक्कडम्' करते हैं, न तो 'मिच्छामि' समझते हैं, न ही 'दुक्कडम्' समझते हैं!
अभी ये जो प्रतिक्रमण होते हैं, वे मागधि भाषा में होते हैं और उसे महाराज पढ़ते हैं और सभी सुनते हैं, तब चित्त किसका एकाग्र होगा? यह कैसा है कि समझ में आए, तब इन्टरेस्ट आता है। यह तो समझ में आता नहीं और फिर बेकार की गप्पबाज़ी करते हैं ! भगवान ने इस तरह देखादेखी नकल करने को नहीं कहा था। भगवान ने क्या कहा था कि, “ठोकर लगे तो समझना कि कोई भूल हुई होगी, तो तुरंत ही गुरु के पास आलोचना कर और फिर गुरु की साक्षी में या 'हमारी' साक्षी में प्रतिक्रमण कर।" यह तो प्रत्यक्ष करना होता है, कपड़ों पर दाग़ पड़े कि तुरंत ही साफ करना होता है, तुरंत ही प्रतिक्रमण करे तभी साफ होता है। ये लोग कैसे हैं? कपड़ों पर चाय का दाग़ पड़े तो तुरंत ही भागदौड़ करके दाग़ धो देते हैं, जबकि इस मन पर अनंत जन्मों से दाग़ पड़े हुए हैं, उन्हें धोने की किसी को नहीं पडी है। प्रतिक्रमण मतलब नक़द व्यापार होना चाहिए, उधार नहीं। ये रोज़ प्रतिक्रमण करते हैं फिर भी कपड़े उजले नहीं होते, ऐसा क्यों है? तेरा साबुन गलत है, कपड़ा गलत है या फिर पानी मैला है? नहीं तो कपड़े रोज़ धोने के बावजूद भी साफ क्यों नहीं होते? यह तो किसी को खुद के दोष ही नहीं दिखते, फिर प्रतिक्रमण होंगे ही कैसे? अपने महात्मा रोज़ के दो सौ, पाँच सौ प्रतिक्रमण करते हैं और दोष धो देते हैं। पाँच लाख दोष बचे हों तो मोक्ष में जाने में दो ही घंटे बाकी रहते हैं और इन लोगों से पूछे तब कहते हैं कि, 'एक-दो दोष ही होंगे!'