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आप्तवाणी-२
'हम में' सभी महाव्रत होते हैं । 'हम' ये सब खा रहे हैं, पी रहे हैं, संसार में रह रहे हैं, फिर भी हममें पाँच महाव्रत संपूर्ण हैं । जितने अणुव्रत बरतते हैं उतना चले और जब तक संपूर्ण महाव्रत तक नहीं पहुँच जाते तब तक तो चलना पड़ेगा न? तब जाकर आत्मा की कुछ झलक मिलेगी । आत्मशक्ति की झलक पाँच महाव्रत पूरे होने के बाद में मिलेगी। जब पाँच महाव्रत पूरे हो जाते हैं, तब सिर्फ प्रत्याख्यानी कषाय ही बाकी रहते हैं । अन्य सभी कषाय हल्के हो जाएँ, खत्म हो जाएँ, तब उसे भगवान ने प्रत्याख्यान आवरण कहा है। हम लोग उसे क्या कहते हैं? 'मन-वचनकाया की आदतों का स्वभाव' कहते हैं। जितना विलय हो गया उतना स्वभाव गया, और बाकी का बच गया । इस प्रत्याख्यान आवरण के लिए क्या कहते हैं कि ‘पच्चखाण (प्रत्याख्यान) बहुत सारे किए फिर भी वह चीज़ जाती नहीं है। उसका आवरण रह गया है । इसलिए उसके, पच्चखाण करने ही पड़ेंगे,' वैसे एकाध दोष होंगे या दो होंगे, लेकिन पूरी जिंदगी के दोष तो नहीं रहे होंगे न? समकित अलग चीज़ है । तप, त्याग में समकित जैसी चीज़ है ही नहीं । समकित तो इस महाव्रत में है, महाव्रत बरते वह!
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अब ये सब त्यागी क्या व्रत का पालन नहीं करते? करते हैं, लेकिन मन खुला रहता है न? और मन खुला रहता है इसलिए उनके खुले कषाय दिखते ही हैं। जब खुला कषाय नहीं दिखें, तब आप समझना कि ये प्रत्याख्यानावरण में है! प्रत्याख्यानावरण कषाय यानी खुले कषाय नहीं दिखते। कषाय इतने अधिक पतले हो चुके होते हैं कि वे होने के बावजूद भी दिखते नहीं हैं, लेकिन उसे खुद को फल देते हैं। यानी कि उसमें खुद में कषाय हाज़िर तो रहते ही हैं। वे उसे खुद को फल देते हैं लेकिन दूसरों को नहीं दिखते !
त्यागियों के कषाय जो बाहर निकल जाते हैं न, ऐसे नहीं होने चाहिए, लेकिन वे बाहर निकलते हुए दिखते हैं उससे ऐसा समझ में आता है कि उनमें महाव्रत तो नहीं है, लेकिन अणुव्रत का भी कोई ठिकाना नहीं दिखता ! क्योंकि अणुव्रत तो कब कहलाता है कि आचार्य महाराज से झूठ