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आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान आलोचना यानी जो कुछ भी दोष हो चुके हों, उनका आप्तजन के सामने, 'ज्ञानीपुरुष' के सामने जैसा है वैसा वर्णन करना ! आलोचना करने से सभी दोष चले जाते हैं, सिर्फ आलोचना से मोक्ष है। एक व्यक्ति ने जेब काटी हो और वह मेरे पास आकर आलोचना करे और मैं उसकी विधि कर दूं तो सब चला जाएगा, वह हल्का हो जाएगा! जहाँ संपूर्ण विश्वास हो वहाँ पर आलोचना की जाती है, वर्ना यह जगत् तो ऐसा है कि दुरुपयोग करे। अपने पर किसी को विश्वास हो तो उसे सौ प्रतिशत विश्वास हो जाए, ऐसा करना चाहिए, उससे विश्वासघात नहीं करना चाहिए। असल में आप्तजन, 'ज्ञानीपुरुष' के सामने ही आलोचना की जा सकती है। भगवान ने आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान पर बहुत भार दिया है।
प्रत्याख्यान मतलब हो चुके दोष फिर से नहीं हों, उसके लिए दृढ़ निर्णय-निश्चय करना।
आज से पंद्रह साल पहले की बात है। मामा की पोल में, बरामदे में हम पाँच-छह लोग बैठकर बातें कर रहे थे, इतने में अठहत्तर साल के एक वृद्ध, घबराते हुए हाथ में डिब्बी लेकर जिनालय जा रहे थे, उनसे मैंने पूछा, 'क्यों चाचा, कहाँ जा रहे हो ऐसे?' वे बोले, 'भाई, पड़कमणुं करने।' मैंने उनसे पूछा, 'पडकमणुं मतलब क्या?' तब उन्होंने कहा, 'रुको, कल महाराज से पूछकर आपको बताऊँगा।'
भगवान को मालूम था कि काल विचित्र आनेवाला है, इसलिए उसमें टिके रहने के लिए आलोचना-प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान, ये बड़े हथियार दिए हैं।
प्रतिक्रमण मतलब क्या?