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चित्त
सेठ कहता है कि, 'एक बार तो हार्टअटेक आ चुका है।' अरे, एक बार तो घंटी बज चुकी है, उसके बाद दूसरे और तीसरी घंटी पर तो गाड़ी रवाना हो जाएगी। हार्टअटेक, वह किसका फल है ? भयंकर कुचारित्र का फल है, तो सीधा हो जा और ज्ञानी के पास जा । तेरे कृत्यों की अकेले में माफ़ी माँग, तब भी तू छूट जाएगा ।
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चित्त गैरहाज़िर हो तब भोजन मत करना और चित्त हाज़िर हो तभी भोजन करना जब बाहर ऐसा प्रोपगैन्डा होगा न, तभी से रोग कम होने लगेंगे।
जनक विदेही को जिन ज्ञानी से ज्ञान प्राप्त हुआ था, उन ज्ञानी के तपस्वी पुत्र को अहंकार हो गया कि, 'मैं कुछ हूँ।' उसे उतारने के लिए गुरुदेव ने पुत्र से कहा कि, 'तू कुछ उपदेश लेने के लिए जनक राजा के वहाँ जा।' वे मुनि तो गए राजा के वहाँ । गुरुदेव ने जनकराजा को पहले से ही सूचना दे दी थी। मुनि ने जब राजमहल में प्रवेश किया तब उन्होंने तो राज वैभव का भारी ठाठ देखा । जनक राजा सोने के हिंडोले पर बैठे हुए थे और दोनों तरफ रानियाँ बैठी थीं, रानियों के कंधों पर हाथ रखकर वे मस्ती में बैठे हुए थे। मुनि ने तो यह देखा और उन्हें मन में हुआ, 'इस विलासी पुरुष से क्या उपदेश लेना' फिर भी पिता जी की आज्ञा थी इसलिए कुछ बोले नहीं, चुपचाप जैसा राजा ने कहा वैसा करते गए । राजा ने भोजन के लिए बैठाया, सोने की थालियाँ और बत्तीस प्रकार के व्यंजन । मुनि तो आसन पर बैठ गए और ज़रा ऊपर नज़र गई, वहाँ तो दिल बैठ गया! 'अरे! यह क्या? सिर पर घंट लटक रहा है और वह भी अब गिरा, तब गिरा हो रहा है !' राजा ने कला की थी, एक बड़ा घंट ठीक मुनि के सिर के ऊपर ही लटका दिया था और वह भी बिल्कुल बारीक, दिखे नहीं ऐसी पारदर्शक डोरी से बाँधा था। वे मुनि तो बेचारे अंदर ही अंदर घबरा गए, जैसे-तैसे भोजन किया। भोजन करते-करते राजा आग्रह कर रहे थे, लेकिन मुनि का चित्त भला भोजन में कैसे रहता? उनका चित्त तो उस घंट में ही लगा हुआ था कि ‘अभी अगर गिर जाएगा तो मेरा क्या होगा ?' भोजन करने के