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चित्त
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दादाश्री : चित्त शुद्ध हो जाए तभी निज घर में आता है। सबसे पहली अशुद्धि क्या है? तो वह यह कि, 'मैं चंदूलाल हूँ, मैं जवान हूँ, मैं इसका पति हूँ।' यह सारा अशुद्ध-चित्त है। उस पर से तो यह समझ में आता है कि चित्त के परमाणु जगह-जगह बिखर गए हैं और आज लोगों के चित्त भी दो-चित्त हो चुके हैं ! 'अनंत-चित्त' से भी आगे बढ़े तो दोचित्त हो जाता है! इन दो-चित्तवालों को तो फिर सबकुछ दो-दो दिखता है। एक व्यक्ति मुझे कहता है कि, 'मैं चित्त-शुद्धि करवाने जाता हूँ।' कलाईवाले के पास जाओ तो वह कलाई कर देगा! लेकिन यह तो दोचित्तवाले लोग और उनके वहाँ चित्त-शुद्धि करवाने जाता है, तेरा जो चित्त है न, वह उसे भी दो-चित्त कर देगा! उसके बदले तो जो उसे रहने दे न! यह दो-चित्तवाला फिर कहेगा कि, 'मुझे तो ये दीये दो-दो दिख रहे हैं!' तब तो अरे, तेरा हो चुका कल्याण! यह एक है और दो कैसे दिख रहे हैं?
चित्त-शुद्धि का सबसे अच्छा उपाय 'दादा' का प्रत्यक्ष सत्संग, और यहाँ तो निरंतर चित्त की शुद्धि होती ही रहती है। 'दादा' यहाँ पर हाज़िर हों और घर बैठे-बैठे चित्त-शुद्धि करे, तो वह ठीक नहीं है।
अशुद्ध चित्त किसलिए अशुद्ध है? 'स्व' को देख नहीं सकता, मात्र 'पर' को ही देख सकता है, जबकि शुद्ध चित्त 'स्व' और 'पर' दोनों को ही देख सकता है!
प्रश्नकर्ता : मन आज्ञा दे, तभी चित्त भटकता है?
दादाश्री : नहीं, सभी स्वतंत्र है। चित्त में विचार नहीं होते और विचार चित्त नहीं है। यदि मन बाहर जाएगा तो व्यक्ति खत्म हो जाएगा। चित्त बाहर भटकता है।
प्रश्नकर्ता : चित्त क्यों भटकता है?
दादाश्री : चित्त खुद का सुख ढूँढता है। इन्द्रियाँ मन के अधिकार में हैं। चेतन शब्द चित्त पर से बना। चित्त यानी ज्ञान और दर्शन। आपको यहाँ सत्संग में बैठे-बैठे दुकान का टेबल धुंधला-सा दिखता है वह दर्शन