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आप्तवाणी-२
हम तो माँस का टुकड़ा छुपा देते हैं और 'व्यवस्थित' पर छोड़ देते हैं। जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो, ऐसे बरतते हैं, और सेठ का तो खून जल जाए, शोर मचाकर रख दे । जिससे घर के पत्नी-बच्चे स्थंभित हो जाते हैं । हम तो समझते हैं कि इस (पकानेवाली) स्त्री ने क्या जान-बूझकर माँस का टुकड़ा डाला होगा? ना । वह तो कुछ लेने गई होगी और ऊपर से कौआ रोटी का टुकड़ा लेने आया हो और उसके मुँह में माँस का टुकड़ा होगा तो वह दाल में गिर गया होगा । एविडेन्स कैसे-कैसे सर्जित होते हैं? इसलिए इंसान को पूरी तैयारी रखनी चाहिए | क्या-क्या होता है, वह सभी लक्ष्य में रखना चाहिए न ?
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क्रोध
जितना त्याग किया उतना अहंकार बढ़ता है और उतना ही ज़बरदस्त बढ़ता है। 'मैं, मैं' करते हैं उससे तो विलासी अच्छा, वह कहता है कि, 'मुझे तो इसमें कुछ भी समझ में नहीं आता ।' हर एक व्यक्ति जाति भेद देखता है कि, ‘यह तो त्यागी है । वह सबकुछ कर सकता है जबकि हम तो संसारी हैं।' ऐसा लिंगभेद रहता है। अगर लिंगभेद रहेगा तो संसारी काम कैसे निकाल सकेगा? तो उसके लिए भी उदाहरण के रूप में हम हैं। हम भी गृहस्थलिंग हैं, इन्कम टैक्स भरते हैं । इसलिए आपको लिंगभेद नहीं रहता और हिम्मत आती है !
भगवान ने त्यागियों के मोक्ष के लिए भी मना किया है और गृहस्थियों के मोक्ष के लिए भी मना किया है । एक व्यक्ति को चाय का त्याग नहीं है और वह चाय ग्रहण करता है, तो वह ग्रहण करने का अहंकार करता है। जबकि दूसरा चाय का त्याग करता है और चाय ग्रहण नहीं करता, तो वह त्याग करने का अहंकार करता है । ये दोनों जो करते हैं वह इगोइज़म है, और इगोइज़म है तब तक मोक्षमार्ग नहीं है । फिर भी, उस मार्ग में, क्रमिक मार्ग में अहंकार से अहंकार को धोना है। साबुन खुद का मैल छोड़ता है और कपड़ा धुल जाता है, साबुन का मैल निकालने के लिए टिनोपॉल डालना पड़ता है, जबकि टिनोपॉल खुद का मैल रखता है और साबुन का मैल निकालता है, ऐसे ठेठ तक चलता है । गुरु खुद का मैल शिष्य पर छोड़ता जाता है, वह तो गुरु का मैल उस पर खुद पर चढ़ा
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