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तप
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के बाद त्याग करना, वर्ना त्याग मत करना। यह तो बहुत बड़ा अस्पताल है, इसलिए ज्ञानी से पूछ कि क्या करूँ? तब वह कहेगा कि, "नहीं, 'ये' तो संसारी हैं।" तो तू अपने आप दवाई बनाकर पी न! किसने मना किया है? तुझे यदि मोक्ष में जाना हो, त्याग में समता लानी हो तो ज्ञानी से पूछ, नहीं तो अपने आप दवाई बनाकर सौदेबाजी चलने दे। वीतरागों ने भी किसी को डाँटा नहीं, कैसे समझदार थे वीतराग! वीतराग तो मूलरूप से ही झगड़ालू नहीं होते, उनके शिष्य दगा करें, लेकिन वे डाँटते नहीं। अपना भी वही ध्येय है न? यह तो हमारे हिस्से में आया है! चौबीस तीर्थंकर माल रखकर गए कि 'जाओ, बाद में 'दादा' आनेवाले हैं, वहाँ जाओ,' वह 'हमारे' हिस्से में आया है। हमारा' उलाहना तो 'करुणा' का उलाहना है। हमारा' स्वभाव तो वीतरागी है लेकिन 'जेवा रोग तेवा औषध, श्रीमुख वाणी झरते' जैसा सामनेवाले का रोग होता है, वैसी ही यह नैमित्तिक वाणी निकलती है।
हमारी कारुण्य बुद्धि से बहुत कठोर शब्द निकलते हैं और काल भी ऐसा है। यदि फ्रिज में ठंडी हो चुकी सब्जी हो तो क्या होता है? फिर सोडा वगैरह सब डालें, तब सब्जी पकती है, इसलिए हमें सोडा आदि सब डालना पड़ता है! हमें क्या यह सब अच्छा लगता होगा?
इतने सारे जंजालों में भी आप महात्माओं को यहाँ पर निर्विकल्प समाधि प्राप्त हो जाती है। आलू का टुकड़ा तो आ सकता है, लेकिन उसे धीरे से, कोई नहीं जान पाए वैसे फेंक देना चाहिए, समता से। जिसे विषम स्थिति हो जाती है वह क्या कहता है? 'कहाँ से ले आया यह? जा फेंक दे।' हमारी दाल में माँस का टुकड़ा आ जाए तो हम तुरंत ही उसे निकालकर धीरे से कपड़े में डाल देंगे। भले ही कपड़े बिगड़े, लेकिन हम दूसरों को नहीं हिलाते। हिलाएँगे तो जो वह दाल खाएगा वह रोगी हो जाएगा। ये लोग तो ऐसे कितने ही कोक्रोच और कितनी ही छिपकलियाँ खा चुके हैं। उससे फिर रोग होते हैं, कोढ़ निकलता है, और अन्य कई रोग होते हैं। बाहर का जो सब खाते हैं उसमें कोई बाप भी सावधानी नहीं रखता और अंदर जीवजंतु गिर जाते हैं और लोग टेस्ट से खाते हैं।