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ध्यान
२९५ की ज़रूरत नहीं है। लक्ष्य अधिक रहे तो, उसे अनुभव कहते हैं। शुद्धात्मा के ध्यान में रहे, वह शुक्लध्यान है। हम शुद्धात्मा के ध्यान में हों और फाइल आ जाए तो उसका समभाव से निकाल करते हैं, वह धर्मध्यान है। साध्य वस्तु प्राप्त हो जाने के बाद साधन की क्या ज़रूरत है? ध्येय प्राप्त हो जाने के बाद ध्याता और ध्यान की क्या ज़रूरत है?
जगत् के सभी मार्ग साधन मार्ग हैं और हमारा यह साध्य मार्ग है! ध्याता तो है नहीं और ध्येय निश्चित करने जाते हैं ! ध्याता कब हुआ जा सकता है? जब जगत् विस्मृत हो जाए, तब ध्याता हुआ जा सकता है। यह तो यदि ध्यान में बैठा हुआ हो और पूछे कि, 'आप कौन हो?' तो वह कहेगा कि, 'मैं मजिस्ट्रेट हूँ।' मतलब कि उसका ध्यान मजिस्ट्रेट में है, तब फिर ध्याता कैसे निश्चित होगा?
फिर भी, जगत् के लोगों को जब तक 'ज्ञानीपुरुष' नहीं मिल जाएँ और उनके पास से स्वरूप का भान नहीं हो जाए, तब तक मन की शांति के लिए किसी साधन की ज़रूरत तो है। कोई गुरु जी हों, उन्हें भले ही आत्मज्ञान नहीं हो, लेकिन चोखे हों, जिन्हें विषय और लक्ष्मी की भूख नहीं हो, तो भले ही उनके फोटो का ध्यान करना, फिर भले ही वे अहंकारी हों, फिर भी उनका ध्यान शांति देगा। यह रिलेटिव ध्यान कहलाता है, टेम्परेरी ध्यान कहलाता है और, रियल ध्यान तो, जब 'ज्ञानीपुरुष' मिलें, तब प्राप्त होता है। और फिर तो परमानेन्ट शांति मिल जाती है। इस रिलेटिव ध्यान में जो शांति प्राप्त करते हो, वह तो जब सास कहती है कि, 'आप में अक्ल नहीं है।' तो वह ध्यान टूट जाता है और उपाधि खड़ी हो जाती है! टेम्परेरी ध्यान काम नहीं आता। 'ज्ञानीपुरुष' क्या करते हैं? कि निरंतर समाधि रहे, वैसा निर्लेप ज्ञान दे देते हैं। जब ज्ञानी मिल जाएँ तब तो क्या करना होता है? क्रिया-कांड वगैरह कुछ नहीं करना है, मात्र आज्ञा, वही धर्म और आज्ञा वही तप!
नाभिप्रदेश में आत्मा खुला है। हम आवरण तोड़ देते हैं तब भगवान दिखते हैं। नाभिप्रदेश के शुद्ध भगवान प्रकट हो जाते हैं, तो खुद निर्लेप हो जाता है। जैसे पीपल पर लाख चिपका हुआ होता है, वैसे ही आत्मा