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आप्तवाणी-२
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'हम' कौन हैं वह जानने की ज़रूरत है । यह चंदूलाल, वह रिलेटिव आत्मा है, वह जो-जो देखता है, जो-जो करता है, उससे मन की गाँठें बनती जाती हैं। मन में विचार आते हैं, वे गाँठों में से ही आते हैं, लेकिन वापस आरोपित भाव से उन्हें पुष्टि मिलती है और गाँठें मज़बूत होती जाती हैं। मन तो तरहतरह के पेम्फलेट्स बताता है, घड़ीभर में कहता है 'बस में जाऊँगा,' घड़ी भर में कहता है, ‘टैक्सी में जाऊँगा ।' मन का क्या स्वभाव है? पेम्फलेट दिखाना और उसका चिंतवन करते रहना । जब टाइमिंग होता है, तब वह पेम्फलेट दिखाता है फिर उसी का चिंतवन करता रहता है कि, 'नहीं, बस में ही जाना है।' फिर बुद्धि अपने आप डिसीज़न देती है और फिर अहंकार उसमें मिल जाता है, यह तो भीतर पार्लियामेन्ट की तरह काम होता है, इन सभी को पहचानना बहुत मुश्किल चीज़ है, यह तो भीतर अपार वंशावली है। एक कहेगा, 'इससे डायवोर्स लेना है' और दूसरा दिखाएगा, 'ना, डायवोर्स नहीं लेना है।' ये तो दोनों ही बिना दाढ़ी के, उन्हें किस तरह पहचानें?! एकाध के दाढ़ी होती तो भी हम पहचान जाते !
मनोलय का मार्ग
प्रश्नकर्ता : मन रोज़ नया-नया माँगता है, तब क्या करें? दादाश्री : तुझे मन को मार डालना है या जीवित रखना है?
प्रश्नकर्ता : दादा मेरा मन निकाल लो।
दादाश्री : नहीं रे, मन को निकाल नहीं लेना है । इस शरीर में से यदि मन निकाल लिया जाए तो एब्सेन्ट माइन्डेड हो जाएगा और एबसेन्ट माइन्डेड को तो पागलों के हॉस्पिटल में भी नहीं लेते क्योंकि पागलों में भी माइन्ड तो होता ही है न? नया-नया माँगना, वह तो मन की खुराक है। घड़ी में कहता है, ‘मियाँ से शादी कर' और घड़ी में कहता है, 'हिन्दू से शादी कर।' ऐसे मन से हमें पूछना चाहिए कि, ‘कहाँ रहते हो?' उसकी खोज नहीं करनी चाहिए कि कौन से मुहल्ले में रहता है ?
प्रश्नकर्ता : इस मन की खोज कौन कर सकता है?