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आप्तवाणी-२
होता है कि एकसाथ विचार फूटते हैं तो जागृति नहीं रहती, लेकिन बाद में ऐसा जाना कि ये विचार बला हैं, वही बताता है कि आत्मा हाजिर
है।
स्वरूप प्राप्ति के बाद विचारों का फोर्स आए तो उससे और कोई परेशानी नहीं है, लेकिन अपना सुख रुक गया, वही नुकसान है।
जब बच्चों के स्कूल की छुट्टी होती है, तब कितने बच्चे एक साथ निकलते हैं? घंटी बजती है कि शुरूआत में ढेर सारे बच्चे निकलते हैं और फिर तो एक-दो, एक-दो बच्चे ही निकलते हैं। वैसा ही इन विचारों का भी है! लेकिन आत्मा इसमें भी खुद का ज्ञाता-दृष्टापन छोड़ता नहीं है, मात्र सुख रुक जाता है। आत्मा कभी भी खुद का स्वभाव नहीं छोड़ता और विभाव में आता ही नहीं है। 'ज्ञानीपुरुष' के पास यह सब विस्तारपूर्वक समझ लेना चाहिए ताकि कोई परेशानी नहीं आए।
विचारों की - आश्रव, निर्जरा भीतर बहुत विचार आते हैं, उनमें यदि तन्मयाकार रहे तो आश्रव (उदयकर्म में तन्मयाकार होना अर्थात् आश्रव होना) होता है और कर्म बंधन होता है। यदि विचारों का ज्ञाता-दृष्टा रहे तो निर्जरा होती जाती है और संवर (शुद्ध उपयोगपूर्वक कर्म की निर्जरा जिससे नये कर्म चार्ज नहीं होते) रहता है, कर्म पर ढक्कन लग जाता है। विचार तो सभी को आते हैं। गाँठे फूटती हैं, अधिक इन्टरेस्टवाली गाँठे फूटती हैं, वे भी अनटाइमली बम की तरह। तो रात को, तीन बजे भी गाँठ फूटती है, लेकिन फूटने से पहले जगा देती है। सपना आए या और किसी तरह, लेकिन जगाकर फूटती हैं, वे भी लिंक में फूटती हैं। यह तो खुद को पसंद आनेवाली गाँठें होती हैं, वे संयोग मिलते हैं, तब फूटती हैं और यदि पढ़कर तन्मयाकार हो जाएँ तो कर्म चिपकता है और पढ़कर जाने दें, तब फिर वापस वह गाँठ नहीं आती। ये विचार आते हैं वे मन में से आते हैं, ये अपने से बिल्कुल अलग हैं, लेकिन वहाँ पर खुद तन्मयाकार हो जाता है। जहाँ तन्मयाकार नहीं होता, वहाँ पर आत्मधर्म हाज़िर है। संयोग मिलता है तो मन की गाँठे फूटती