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बुद्धि और ज्ञान
है। यह तो जहाँ साँप होता है, वहाँ बुद्धि की लाइट से देखता है, तब अजंपा होता है जबकि 'व्यवस्थित' कहता है, 'जा न तू, कोई भी नहीं काटेगा!' तो निराकुलता रहती है । बुद्धि तो, संसार में जहाँ-जहाँ उसकी जितनी ज़रूरत है, उतना उसका सहज प्रकाश देती ही है और संसार का काम हो जाता है, लेकिन यह तो विपरीत बुद्धि का उपयोग करता है कि कहीं साँप काट लेगा तो! यही उपाधि करवाती है । सम्यक् बुद्धि से सर्व दुःख खत्म हो जाते हैं और विपरीत बुद्धि से सर्व दुःखों को इन्वाइट करता है।
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तीन प्रकार की बुद्धि होती है एक अव्यभिचारिणी बुद्धि, दूसरी व्यभिचारिणी बुद्धि और तीसरी सम्यक् बुद्धि । इन तीनों प्रकारों में, यदि किसी जन्म में 'जिन' ( वीतराग ) के दर्शन किए हों, तो उसमें सम्यक् बुद्धि विकसित होती है। शुद्ध 'जिन' के दर्शन किए हों और वहाँ पर श्रद्धा बैठी हो तो बीज व्यर्थ नहीं जाता, उससे अभी सम्यक् बुद्धि उत्पन्न होती है और फिर सहज भाव से मार्ग मिल जाता है ।
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किराने के व्यापारी के दो हज़ार रुपये वापस नहीं आएँ तो ग्राहक के साथ झगड़ा करता है, तो फिर ग्राहक उसे एकाध धौल लगा देता है और फौजदारी केस बनता है। इसमें तो, अभी तक रुपये तो दिए नहीं और फौजदारी केस हो गया । इसलिए कहता है, 'मैं तो दुःखी - दुःखी हो गया।' यह तो खुद ही दुःखों को बुलाता है ! इन दुःखों को यदि बुलाया नहीं जाए तो एक भी आए, वैसा नहीं है । विपरीत बुद्धि से ही दुःख खड़े होते हैं। विपरीत बुद्धि मतलब चाकू की उल्टी धार से सब्ज़ी काटना । सब्ज़ी नहीं कटती है और उँगली में से खून निकल जाता है।
जिसमें अक़्ल है, उसका मोक्ष नहीं हो सकता। दुनिया जिसे अक़्लवाला कहती है, वह तो बहुत ही कमअक़्ल है । अक़्लवाला खुद की ही कब्र खोदता है, उसे 'हम' कमअक़्ल कहते हैं । हम खुद ही बगैर अक़्ल के हैं न! अबुध हैं! हममें यदि बुद्धि का छींटा भी होगा तो सभी प्रकार के ध्यान खड़े हो जाएँगे । व्यापार में ऐसा लगेगा कि, 'ये पैसे ज़्यादा ले गया, इसने ऐसा किया ।' उससे ज्ञान ही खत्म हो जाएगा।