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ध्यान
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वह भी विकल्प समाधि। यह बालक अगर कुछ फोड़ दे, तब अंदर में विकल्प समाधि टूट जाती है।
प्रश्नकर्ता : संकल्प-विकल्प यानी क्या?
दादाश्री : विकल्प यानी 'मैं' और संकल्प यानी 'मेरा'। खुद कल्पतरु है, जैसे कल्पना करे वैसा बन जाता है। विकल्प करे, तब विकल्पी बन जाता है। मैं और मेरा करता रहता है वह विकल्प और संकल्प है। जब तक स्वरूप का भान नहीं हो जाता, तब तक विकल्प नहीं टूटता और निर्विकल्प हुआ नहीं जाता। 'मैंने यह त्याग किया, मैंने इतने शास्त्र पढ़े, यह पढ़ा, भक्ति की, वह किया,' वे सभी विकल्प हैं, अंत तक वे विकल्प खड़े ही रहते हैं और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा नहीं बोला जा सकता, 'मैं चंदूलाल हूँ, मैं महाराज हूँ, मैं साधु हूँ' वह भान बरतता है लेकिन 'मैं शुद्धात्मा हूँ' वह भान नहीं हुआ तो 'मैं शुद्धात्मा हूँ,' कैसे बोला जा सकता है? और तब तक निर्विकल्प समाधि कैसे उत्पन्न होगी? यह तो ऊपर से शब्द उतर आया है, बस इतना ही! सिर्फ वीतराग और उनके अनुयायी ही निर्विकल्प समाधि में थे और वे तो सभी जानते थे, सीधा जानते थे
और आड़ा भी जानते थे! फूल चढ़ते उसे भी जानते थे और पत्थर चढ़ते उसे भी जानते थे, यदि जानते नहीं तो वीतराग कैसे कहलाते? पर ये लोग तो देह का भान गया और 'हम निर्विकल्प समाधि में हैं' ऐसा समझ बैठे हैं ! सोते समय भी देह का भान चला जाता है, तो फिर उसे भी निर्विकल्प समाधि ही कहा जाएगा न? समाधिवाले को जगते हुए देह का भान चला जाता है और चित्त के चमत्कार दिखते हैं, उजाले दिखते हैं, बस इतना ही। लेकिन यह नहीं है अंतिम दशा, इसे अंतिम दशा मान लेना भयंकर गुनाह है! आत्मा का भान तो रहना ही चाहिए और इसका (पुद्गल का) भी संपूर्ण भान रहना चाहिए। उसे निर्विकल्प समाधि कहा गया है, नहीं तो वीतरागों को केवलज्ञान में कुछ भी दिखता ही नहीं न?
निर्विकल्प समाधि कोई समझता ही नहीं और सभी अपनी-अपनी भाषा में ले गए हैं। आत्मा को भी खुद की भाषा में ले गए और फिर भी कहते हैं कि 'मुझे आत्मज्ञान जानना है।'