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आप्तवाणी-२
ये त्याग करते हैं वे तो अहंकार करके ही त्याग करते हैं। लेकिन जहाँ ग्रहण-त्याग में मूर्छा नहीं है उसे भगवान ने खरा त्याग कहा है, सहज ही बरते ऐसे त्याग को त्याग कहा है।
त्याग में विषमता
ये लोग भले ही कितना भी बाह्य त्याग करें, लेकिन त्याग में विषमता आ जाए तो खुद की गलतियाँ नहीं दिखती, लेकिन अगर त्याग में समता आ जाए तो खुद की गलतियाँ दिखने लगती हैं। महाराज भिक्षा लेने गए हों, लेकिन उसमें एकाध आलू दिख जाए तो विषमता हो जाती है! तो फिर गलतियाँ कैसे दिखेंगी? त्याग में समता रहनी चाहिए।
प्रश्नकर्ता : त्याग में विषमता यानी क्या?
दादाश्री : किसी व्यक्ति ने किसी चीज़ का त्याग किया हो कि मुझे लहसुन-प्याज़ नहीं खाने हैं, फिर भी भूल से प्याज़ का टुकड़ा उछलकर खाने में गिर जाए और खाते समय हाथ में आ जाए तो दिमाग़ का पारा चढ़ जाता है, चिल्लाता है। कितने लोग तो प्याज़ देखने को भी राजी नहीं होते। देख लें तो भी अच्छा नहीं लगता, तब उसकी स्थिति कौन सी? तब क्या उसे समता रहती है?
प्रश्नकर्ता : नहीं, विषमता रहती है।
दादाश्री : इस त्याग का फल विषमता आया, इससे तो त्याग नहीं किया होता तो अच्छा था। भगवान ने क्या कहा है कि अगर एक आलू का टुकड़ा भूल से आ गया तो तुझे क्या नुकसान हो गया? ये सब आलू ही हैं न? जो भोगे जाते हैं, वे सभी आलू ही हैं न! यह तो भान ही नहीं है, इसलिए बुद्धि से भेद डाल दिए। भूल से आ गया तो हमें उसका हल लाना है। इतना तो आना चाहिए न? ! समता कभी भी नहीं छोड़नी चाहिए। त्याग में समता रहे तो वह मोक्ष में ले जाती है। यह त्याग समता बढ़ाने के लिए किया या विषमता के लिए? त्याग तो समता बढ़ाने के लिए है और यदि समता नहीं रहे तो वैसा त्याग बेवकूफी है। ज्ञानी से यह समझने