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आप्तवाणी-२
और तीन मिनट बाद शुरू होगा। यहाँ पर धड़कन शुरू हुई यानी आयुष्य खर्च हुआ और जितनी धड़कनें सलामत हैं, तो उतना आयुष्य सलामत । आपसे यह आयुष्य को सलामत नहीं रखा जा सकता। योगवाले कर सकते हैं और जब तक देह में आत्मा की हाज़िरी है, तब तक शरीर सड़ता नहीं, मुरझाता नहीं, बदबू नहीं मारता, देह वैसे का वैसा ही रहता है ! फिर भले ही योग द्वारा हज़ार सालों के लिए पत्थर जैसा हो चुका
हो।
प्रश्नकर्ता : उसमें आत्मा की क्या दशा होती है?
दादाश्री : बोरे में भरकर रखने जैसी। उसमें आत्मा पर क्या उपकार हुआ? यह तो इतना ही कि मैं हज़ार साल तक योग में रहा ऐसा सिर्फ अहंकार रहता है। फिर भी, सांसारिक दुःख बंद रहते हैं लेकिन सुख तो उत्पन्न नहीं ही होता। सुख तो, जब आत्मा का उपयोग करते हैं, तभी उत्पन्न होता है, और आत्मा का उपयोग कब होता है? हार्ट चले तब होता है। उसके बिना तो कुछ नहीं हो सकता।
कुछ योगी उनके शिष्यों से कहकर रखते हैं कि आत्मा ब्रह्मरंध्र में चढ़ा लूँ, उसके बाद तालू में (खोपड़ी पर) नारियल फोड़ना, लेकिन ऐसे कहीं मोक्ष में जाया जाता होगा? ये तो ऐसा मानते हैं कि तालू में से जीव निकले तो मोक्ष में जाता है, इसलिए ऐसा प्रयोग करते हैं। लेकिन ऐसा मानने से कुछ नहीं हो सकता, वह तो नैचुरली तालू से प्राण निकलना चाहिए। कोई कहेगा कि आँख में से जीव जाए तब ऐसा होता है, तो क्या आँखों में मिर्ची डालकर जीव आँखों में से भेजें? ना। नैचुरली होने दे न!
प्रश्नकर्ता : जहाँ से द्वार खुलते हैं, आँख, नाक वगैरह उनमें से जीव जाता है?
दादाश्री : हाँ, वे लक्षण कहलाते हैं। पाँच लक्षण और लक्षित अनंत हैं, उसका कहाँ ठिकाना पड़े? मुँह से जीव जाए तो अनंत जगहों पर जा सकता है, ऐसा है। वे सारी तो ढुल-मुल बातें हैं, इनमें स्पष्टता नहीं मिलती।