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आप्तवाणी-२
जो रोग होता है, उसे वैसी दवाई की ज़रूरत है। वह तो केवल टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट है, उससे तो केवल टेम्परेरी रिलीफ मिलता है। यदि इस रिलीफ को अंतिम स्टेशन मानें तो उसका हल कब आएगा? यदि इस एकाग्रता की दवाई से क्रोध - मान-माया - लोभ चले जाते हों तो वह काम का है। यह तो पच्चीस साल तक एकाग्रता करता है, योगसाधना करता है, उससे यदि क्रोध-मान-माया और लोभ नहीं जाएँ तो किस काम का? जिस दवाई से क्रोध-मान-माया और लोभ जाते हैं, वही दवाई सही है । यह योग साधना तू करता है, वह किसकी करता है? 'जान लिया' उसकी या अनजान की? आत्मा से तो अनजान है, तो उसकी साधना किस तरह से होगी? देह को ही जानता है और देह की ही योगसाधना तू करता है, उससे तूने आत्मा पर क्या उपकार किया? और इसलिए तू मोक्ष को कब प्राप्त कर सकेगा?
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दूसरा योग - वह वाणी का योग है, वह जपयोग है, उसमें पूरे दिन जप करता रहता है। ये वकील वकालत करते हैं, वह भी वाणी का योग कहलाता है!
तीसरा योग - वह मनोयोग है, किसी भी प्रकार का मानसिक ध्यान करते हैं, वह। लेकिन ध्येय निश्चित किए बगैर ध्यान करने से कुछ नहीं होता। गाड़ी से जाना हो तो स्टेशन मास्टर से कहना पड़ता है न कि मुझे इस स्टेशन की टिकट दो। स्टेशन का नाम तो बताना पड़ता है न? यह तो ‘ध्यान करो, ध्यान करो,' लेकिन किसका ? ये तो कह ! लेकिन यह सब अंधाधुंध चल रहा है, बिना ध्येय का ध्यान वह तो अंधाधुंध कहलाता है। ऐसे ध्यान में तो आकाश में भैंसा दिखता है और उसकी लंबी पूँछ दिखती है बस, ऐसा ध्यान किस काम का? यों ही गाड़ी चल पड़ेगी तो कौन से स्टेशन पर रुकेगी, वह भी तय नहीं है। ध्येय तो सिर्फ एक 'ज्ञानीपुरुष' के पास ही है, वहाँ पर जीवंत ध्येय प्राप्त होता है, उसके बिना यदि ‘मैं आत्मा हूँ’ बोलेंगे तो काम नहीं होगा । वह तो, जब ‘ज्ञानीपुरुष’ पाप जला देते हैं, ज्ञान देते हैं, तब ध्येय निश्चित हो पाता है स्वरूप ज्ञान देते हैं, तब ध्येय प्राप्त होता है उसके बिना 'मैं शुद्धात्मा हूँ' बोलने से कुछ