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तप
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थाली की मूर्छा नहीं रहती । ये सभी परिग्रह हैं, उनमें अपरिग्रही बन जाए तो अंत आएगा। सत्सुख को पाएगा। लेकिन आज ये लोग आड़ी गली में घुस गए हैं, लेकिन इसमें इनका दोष नहीं है, यह तो कालचक्र के अधीन हैं। हमें कोई दोषित नहीं दिखता है । भीतर जो विराजमान हैं, वे दरअसल संपूर्ण वीतराग हैं! यह तो आश्चर्य उत्पन्न हो गया है! यह अक्रम ज्ञान उत्पन्न हुआ है और वह 'विक्रम' शिखर पर है !
यह ज्ञान प्राप्त करने के बाद, कोई व्यक्ति आपके पास आए और वह आपको कड़वा पिलाए, तो उस समय भीतर में हार्ट लाल हो जाता है, उस समय आप यदि ज्ञान में स्थिर रहकर हार्ट को देखते रहो कि कितना तप रहा है तो इसी को भगवान ने 'ज्ञानतप' कहा है । संसारावस्था, वह कुदरती रचना है, उसमें अस्थिर क्या होना ?
भगवान ने तो कहा है कि अगर ज्ञान नहीं होगा, लेकिन यदि भान होगा तो भी चलेगा। भगवान ने ऐसा नहीं कहा है कि भान नहीं होगा तो चलेगा। भान होने के बाद ही ज्ञान - तप शुरू होता है। भगवान ने प्रयत्नदशा में एब्नॉर्मल होने के लिए मना किया कहा है और अप्रयत्न दशा में भी एब्नॉर्मल होने के लिए मना किया कहा है। भगवान कहते हैं कि सब तरफ से नॉर्मेलिटी में आ जाओ! तू एब्नॉर्मेलिटी में जो कुछ भी करता है, भगवान ने उसे विषय कहा है।
यह तप-त्याग जो करते हो, वह समष्टि आपसे करवाता है । और उसे आप मानते हो कि, 'मैं तप कर रहा हूँ ।' यह रिलेटिव चीज़ है, रिलेटिव में कोई कुछ कर ही नहीं सकता । हमने तो अंतिम बात कह दी है कि, 'तू तप करे या जप करे, त्याग करे या वेष बदले, जो भी करे वह सारा तेरा लट्टू स्वरूप ही है! जब तक शुद्धात्मा प्राप्त नहीं हो जाता तब तक सबकुछ प्रकृति करवाती है, इसलिए तू लट्टू ही है । '