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तप
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आता है और मोक्ष नहीं मिलता। लेकिन जब तक 'ज्ञानीपुरुष' नहीं मिल जाएँ तब तक शुभ में पड़े रहना।
त्याग किसका करना है? भगवान ने ऐसे तप-त्याग करने के लिए नहीं कहा था, उन्होंने तो वस्तु की मूर्छा का त्याग करने के लिए कहा था। उन्होंने ज्ञानमंदिरवाला त्याग करने को कहा और लोग जिसे मानते हैं, वह बालमंदिर का त्याग है। यह पर्स है, यदि यह खो जाए फिर भी कुछ नहीं हो, उसे मूर्छा का त्याग कहते हैं। बालमंदिर के त्याग में तो, 'कुछ भी छोड़ना है' वही ध्येय होता है, लेकिन उसका कुछ न कुछ फल मिलेगा। पत्नी-बच्चे छोड़ेंगे तो लोग 'गुरु जी, गुरु जी' करके पूजेंगे। वस्तु की मूर्छा का त्याग, वही खरा त्याग है, बाकी जो पत्नी और बच्चों का त्याग करता है, वह तो दूसरे नियम के आधार पर त्याग करता है। उदयकर्म के आधार पर प्रकृति त्याग करवाती है लेकिन देख लोटे पर मूर्छा है न! शिष्य पर द्वेष हो जाता है तो इसे त्याग कैसे कहा जाएगा?
सच्चा मार्ग मिला नहीं है इसलिए ये सब गोते खाते हैं, उसमें उनका दोष नहीं है। फिर भी, यह उलाहना किसे देना है? जो अहंकार कर रहा है उसे, कि यह कुछ समझा नहीं है और पत्नी-बच्चों का त्याग कर दिया। घर से तीन घंट छोड़कर आया और यहाँ एक सौ आठ शिष्यों के घंट गले में लटकाए हैं, इसलिए कहना पड़ता है!
भगवान ने कहा है कि, बंगले में रहने पर भी बंगले की मूर्छा नहीं है, मूर्छा के ऐसे त्याग को त्याग कहा है। जेब कट जाए फिर भी कोई मूर्छा नहीं आए, तब वह त्यागी है। यदि मूर्छा के ऐसे त्याग को त्याग नहीं कहा होता तो संसारी को केवलज्ञान होता ही नहीं, भगवान ने क्या कहा है कि वस्तु का त्याग कोई कर ही नहीं सकता। चीजें अनंत हैं, उनका किस तरह त्याग किया जा सकता हैं? वस्तुओं को दुत्कारने से वे जाती हैं क्या? ना। लेकिन यदि अनंत वस्तुओं में से मूर्छा का त्याग हो जाए तो वह वस्तुओं का त्याग करने के समान है।