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आप्तवाणी-२
ओवरवाइज़ हो गया था और जानवर से भी अधिक खराब आचार हो गए थे। क्योंकि जानवरों में दुराग्रह नहीं होता, कदाग्रह नहीं होता, हठाग्रह नहीं होता अतः मनुष्य में वे तो होने ही नहीं चाहिए और यदि हों तो कुछ हद तक रहें, तब तक मनुष्यपना है क्योंकि डेवेलप्ड हैं। यानी कि जानवरों की तुलना में इनमें विशेष आग्रह होता है, वह कुछ हद तक रहे तब तक ठीक है, नहीं तो फिर जानवरों से भी अधिक बुरा कहलाएगा। इसे मनुष्यपन कैसे कहोगे? गलत पकड़ पकड़ना, गलत दुराग्रह, गलत कदाग्रह, खुद के ही विचारों से धर्म को मानना और मूल्यांकन करना। धर्म तो कैसा होना चाहिए? कि छोटे बालक के पास से भी जानने का प्रयत्न करना चाहिए। जानवरों से भी यह जानने का प्रयत्न होना चाहिए कि इनमें कैसेकैसे गुण हैं?
इस कुत्ते को एक ही दिन पूड़ी दी हो, तो तीन दिन तक वह हमें जहाँ भी देखे, वहाँ दुम हिलाता रहता है। उसमें हेतु लालच का है कि फिर से दे तो अच्छा - लेकिन वह उपकार तो नहीं भूलता है न! वह उपकार को लक्ष्य में रखकर लालच रखता है। और मनुष्य? चाहे जो हो लेकिन आज तो यह भारत डेवेलप हुआ है, नहीं तो क्या मोक्ष की बात तो सुनाई देती? अरे, समकित का भी ठिकाना नहीं था न! भगवान महावीर के जाने के बाद आज दो-दो हज़ार सालों से ठिकाना नहीं था, और उनसे पहले भी नहीं था। भगवान का जन्म हुआ तब २५० साल में दो बार लाइट कौंध गई, पार्श्वनाथ और महावीर - दो। उस समय बस कुछ ही लोगों का काम हो पाया था। अन्य किसी को लाभ-वाभ नहीं मिला। भगवान का प्रभाव तोड़ने के लिए भी लोगों ने बहुत उपाय किए थे। जहाँ पर भगवान चलते वहाँ पर इस तरह खड़े काँटें रास्ते में बिखेरे। वे कीकर के काँटें ऐसे खड़े रखे होते थे लेकिन जब भगवान उस पर चलते तब काँटें ऐसे टेढ़े हो जाते थे, ऐसे प्रत्यक्ष देखते थे फिर भी हिन्दुस्तान के दूसरे धर्म के लोगों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया, कहते थे, 'यह तो जादू है, यह विद्या है' ऐसा स्वीकार कर लिया, लेकिन सत्य का स्वीकार नहीं किया। ऐसे ग़ज़ब के साइन्टिस्ट, उन्हें स्वीकार नहीं किया! बहुत ही जंगलीपन। प्रपंच! प्रपंच! प्रपंच! धर्म में ही व्यापार किए! व्यापार कहाँ शुरू कर दिए थे?