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तप
भगवान ने ऐसा कहा है कि, 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, ये चार मोक्ष के आधार स्तंभ हैं'। लेकिन लोग उनकी खुद की भाषा में ले गए। 'मैं शुद्धात्मा हूँ,' वह ज्ञान है, 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसी प्रतीति रहे, वह दर्शन है और ज्ञाता - दृष्टा रहे, वह चारित्र है । अगर बाहर कुछ हो जाए, तब हृदय तपे तो उसे देखना और जानना वह तप हैं, उसे अंतर तप, अदीठ तप कहा है। मोक्ष में जाने के लिए अंतर तप चाहिए, मोक्ष में जाने के लिए बाह्य तप की ज़रूरत नहीं है । बाह्य तप से अच्छी गति मिलती है, लेकिन मोक्ष नहीं मिलता। अदीठ तप ऐसा होता है कि दिखाई नहीं देता। फॉरेन में प्रवेश नहीं करना और होम में ही रहना उसे ही भगवान ने सच्चा तप कहा है। आत्मा और अनात्मा की संधि ( के किनारों) को एक नहीं होने देना, वह खरा तप है। और यह तप किसलिए करना है? क्योंकि अनादि से फॉरेन का अध्यास है इसलिए तप करना पड़ता है, इसके बावजूद इस तप में तप नहीं जाते ।
मोक्षमार्ग अर्थात् बिल्कुल सहज मार्ग, यानी क्रियाकांड नहीं होते, मेहनत नहीं होती। तप, त्याग, जप, ये सभी क्रियाएँ फल देनेवाली होती हैं। फल मिलने तक रहना हो तो मुकाम करो और फिर फल चखना, लेकिन फल आएँ तब किस तरह के विचार होंगे, उसका क्या भरोसा? बीज बोया हो तब त्यागी दशा में होता है और फल आया तब गृहस्थ दशा में होता है, पंचेन्द्रिय के विचारों में पड़ा हुआ होता है । तप, त्याग से देवगति मिलती है, मोक्ष नहीं मिलता। मोक्ष तो, तभी होता है जब सहज हो जाते हैं। ये तप, त्याग की मेहनत करने में तो हैन्डल लगाने पड़ते हैं।
हम पूछें कि, ' तबियत ठीक नहीं है इसलिए नहीं खा रहे हो?' तब वह कहेगा, ‘मैं तप कर रहा हूँ ।' 'कितने दिन भूखे रहोगे?' तो वह