________________
मूर्तिधर्म : अमूर्तधर्म
नहीं है। 'हम' सच्ची प्राणप्रतिष्ठा करते हैं, लेकिन उदय के बिना 'हम' नहीं करते। लोगों का कल्याण हो, उसके लिए हम प्रतिष्ठा करते हैं। लोगों में जितनी शक्ति होती है, उसके अनुसार प्राणप्रतिष्ठा करते हैं । और यह प्रतिष्ठा कैसे भाव से करते हैं? कलुषित भाव से । कलुषित भाव निकले नहीं होते और प्राणप्रतिष्ठा करते हैं। अंदर ग़ज़ब का कलुषित भाव हाज़िर रहता है । छेड़ा जाए तो फन फैलाते हैं, ऐसी प्रतिष्ठा करेंगे तो कैसा फल देगी? प्राणप्रतिष्ठा करने का अधिकार किसे हैं? जिनके कलुषित भाव पूर्णरूप से निकल गए हैं, उतना ही नहीं लेकिन उनके निमित्त से किसी को भी कलुषित भाव नहीं होता हो । वे तो ‘पंच परमेष्टि' में गिने जाते हैं, और ऐसे व्यक्ति के हाथों से प्राणप्रतिष्ठा होनी चाहिए। फिर भी, यह 'मामा नहीं हो, इसके बजाय तो मुह बोले मामा अच्छे।' बाकी प्रतिष्ठा तो ऐसी होनी चाहिए कि मूर्ति बोल उठे, हँस उठे! हम जहाँ-जहाँ प्रतिष्ठा करते हैं, वहाँ-वहाँ मूर्ति बोल उठती है, हँस उठती है! हमारी इच्छा तो बहुत होती है कि सभी जगह मंदिरों में प्रतिष्ठा हो, लेकिन सत्ता हमारी नहीं है न? 'व्यवस्थित' के हाथ में है सब, इसलिए हम उदय के अनुसार करते हैं।
४९
यह आपके अंदर भी 'हमने ' प्रतिष्ठा ही की है। इसीलिए तो आप 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा बोल उठते हो ! मूर्ति में प्रतिष्ठा ‘ज्ञानीपुरुष' करते हैं। जड़ मूर्ति में 'ज्ञानीपुरुष प्रतिष्ठा करें तब भी फल देती है, तो जीवंत मूर्ति में प्रतिष्ठा करें तो क्या फल नहीं देगी?
यह सभी तो तालियाँ बजाएँगे और भगवान को 'तू' और 'मैं' गाएँगे और यदि मूर्ति को भजेगा तो मूर्ति मिलेगी । देह अच्छी मिलेगी, मोटर, बंगले मिलेंगे, लेकिन जब तक अमूर्त के दर्शन नहीं हो जाएँ, 'ज्ञानीपुरुष अमूर्त के दर्शन नहीं करवा दें, तब तक मूर्ति की उपासना करना, और जब अमूर्त की उपासना करता है तब मोक्ष होगा । मूर्ति की उपासना तो अनंत जन्मों से करते ही आए हैं न? ‘ज्ञानीपुरुष में तो अमूर्त है और मूर्ति भी है। 'ज्ञानीपुरुष मूर्तामूर्त हैं, इसलिए उनकी उपासना करने से मोक्ष होता है !